जिस देश में मौत का उत्सव मनाया जाता हो, जहां एनकाउंटर को गर्व के साथ उपलब्धि के रूप में विधानसभा में गिनाया जा रहा हो वहां गांधी, किताबों में पड़े-पड़े बास मारते हैं. उनकी तस्वीरें सच में तोड़ देनी चाहिए, नोटों से उनकी तस्वीरें हटा देनी चाहिए. गांधी से बेहतर यहां गोडसे को पूजना ठीक रहेगा.
हमारी मौजूद सरकार उत्सव धर्मी है. असमानताओं का ऐसा समन्वय किसी और पार्टी में देखने को न मिले. व्यवहार में धुर विरोध के बाद भी भाजपा गांधी और अम्बेडकर को अपनाने की फिराक में है.
भारत में सरकार की ओर से सर्जिकल स्ट्राइक की दूसरी वर्षगांठ पर पराक्रम दिवस मनाया जा रहा है. भारतीय सेना ने दो साल पहले 29 सितंबर, 2016 के दिन सर्जिकल स्ट्राइक की थी जिसकी दूसरी वर्षगांठ पर इसका आयोजन किया गया. भरपूर उत्सव मना.
प्रधानमंत्री ने कब प्रसून जोशी के साथ लंदन में इंटरव्यू दिया था तब उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक का जिक्र करते हुए कहा कि हमने पाकिस्तान को फोन करके कहा है कि लाशें पड़ी हैं ले जाओ.
प्रधानमंत्री के चेहरे पर गजब का गर्व था यह कहते हुए. विडंबना देखिए, आज अखबार पटे हैं गांधी पर मोदी जी के विज्ञापनों के.
गांधी को उतने चमक-दमक के साथ कांग्रेस पेश नहीं कर पाई जितना भाजपा कर रही है. 29 सितंबर को सर्जिकल स्ट्राइक डे मना, प्रधानमंत्री किस मुंह से गांधी जयंती मनाएंगे? क्या सर्जिकल स्ट्राइक को गांधी जी स्वीकार करते? क्या एनकाउंटर को गांधी जी पचा पाते?
गांधी जी स्वर्ग में बैठकर सिर खुजला रहे हैं, उनके नाम का कितना गलत इस्तेमाल हो रहा है. उनके लिए कराए जा रहे आयोजनों पर करोड़ों खर्च किया जा रहा है, लेकिन वे जिनके लिए आजीवन सोचते रह गए उन्हें झांसा मिल रहा है.
जिनसे गांधी जी को हमेशा नफरत रही वही काम अब राष्ट्रीय गौरव की विषय वस्तु है. गांधी और शास्त्री आजीवन किसानों के लिए सोचते रह गए. भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के बैनर तले बड़ी संख्या में किसान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की ओर बढ़े. हरिद्वार से निकली किसानों की रैली को यूपी-दिल्ली की सीमा पर रोक दिया गया. इसके बाद सुरक्षाबलों ने किसानों पर वॉटर कैनन छोड़ दिया. आंसू गैस के गोले भी दागे गए. इस दौरान कई किसान घायल हो गए. ध्यान देने वाली बात है कि यह भी एक शांतिपूर्ण तरीके से हो रहा था.
गांधी ने शांतिपूर्ण आंदोलनों का हमेशा समर्थन किया है लेकिन देखिए, शांतिपूर्ण किसानों पर वॉटर कैनन छोड़ा गया. गांधी तो आंदोलन करते थे, सरकारें आंदोलनों को खारिज करती हैं. फिर गांधी जयंती का उत्सव क्यों मनाना?
गांधी को संसद डकार गई है. संसद भवन परिसर में गांधी की विशाल मूर्ति बनाकर उन्हें संसद के बाहर कर दिया गया है. वह बूढ़ी मूर्ति संकेत करती है कि गांधी ससंद के बाहर ही बैठे रहेंगे, उनका संसद के भीतर कोई काम नहीं. संसद में रहने वाली सरकारों को भी गांधी से कोई मतलब नहीं. गांधी के पदचिन्हों पर चलकर वोट नहीं मिलेगा, केवल गांधी की तस्वीरों वाले नोट तकदीरें बदल सकेंगे. गांधी को बेचने का काम हर सरकार करती है. मौजूदा सरकार अपवाद तो है नहीं. गांधी बेमतलब हैं. उनका होना न होना बराबर है. कुछ के काम आ जाएंगे गांधी, कुछ का काम तमाम करा देंगे गांधी. उनकी मौजूदगी को गाहे-बगाहे हम महसूस करेंगे लेकिन उनकी मजबूरी नहीं, गांधी का दम घुट रहा है…उनके ही देश में.