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क्या ठरकी पत्रकारिता के अच्छे दिन चल रहे हैं?

तथ्यपरक सवाल, वस्तुपरख पत्रकारिता, सरकार से उद्देश्यपरक सवाल अब नही पूछे जाते हैं। जनवादी पत्रकारिता अब विरले ही देखने को मिलती है। समय के साथ साथ देश, देश की मानसिकता, देश की शासन पद्धति  सब कुछ बदली है, तो इस बदलाव के लहर से पत्रकारिता भला कैसे अछूती रहती?

पहले पत्रकारिता व्यापक नही थी, जनसमूह में उसकी भागीदारी नहीं थी। फिर भी वह असरदार थी। आज जो हम आजादी के भोग भोग रहे हैं, उसमे पत्र पत्रिकाओं का एक उल्लेखनीय योगदान रहा है। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह को धार  इंडियन ओपिनियन नामक पत्र की वजह से ही मिल थी।

सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन जब चरम पर था, अंग्रेज आजादी के दीवानों का दमन कर रहे थे, तब कुछ ही बड़े सत्याग्रही जेल जाने से बचे थे। उसमे जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया प्रमुख थे। अंग्रेजो से बचकर वो नेपाल में छुपे थे। कभी आपने सोचा है वो दोनों  वहां से अपने साथियों और देश से संचार कैसे स्थापित करते थे? उन्होंने इस काम के लिए रेडियो का सहारा लिया था, लोहिया जब भी कही अंग्रेजो से छुपकर भागते थे वो अपने साथ ट्रांसमीटर लिए रहते थे।

 आजादी के दीवानों का मनना था कि जब तोप मुक़ाबिल हो जाए तो कलम का  सहारा लेना चाहिए। लेकिन जब कलम ही गुलाम बन जाए या बना दिया जाए,तो जनसरोकार की बाते कौन करेगा? ऐसे में सरकार नीतियों पर सवाल कौन खड़ा करेगा?

आज पत्रकारिता का पैठ है,जनसमूह में इसकी भागेदारी है। मगर फिर भी लोगो के विचार में ये क्रांति लाने में ये असफल है। क्यो? जवाब भी बहुत सीधा औऱ सपाट है।

आज पाठकों के भी अलग अलग दायरे हो गए है। आज पाठक जो दिन भर आफिस से थक कर घर वापस आता है तो उसे  आर्थिक विश्लेषण, विचार विमर्श सुनने के बजाय  उसे जोरदार बहस, उत्तेजित कर देने वाले बैकग्राउंड धुन पर चलने वाली खबर ज्यादा अच्छी लगती है।

 ऐसी खबर सुनकर उनका दिनभर का थकान दूर हो जाता है,तो भला वो उबाऊ कर देने वाली खबर क्यो सुने?

तस्वीरें साफ हैं कि सनसनीखेज खबरों का पाठक वर्ग परिचर्चा, विश्लेषण और गांव कस्बो के रिपोर्ट देखने वाले पाठको से ज्यादा है। तो जब ज्यादा पाठक वर्ग बनावटी खबरों में मिलता है,तो टीवी मालिक क्यो  परिचर्चाएं प्रसारित करे? मुफ्त का पैसा किसे काटता है?

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पत्रकारिता का दायरा निसंदेह बढ़ा है। प्रिंट मीडिया के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अब वेब मीडिया भी आ गईं है। इस बढ़ते व्यापकता, दायरा, पैठ के बीच पत्रकारिता को और धारदार होना चाहिए था।

लेकिन नतीजा इसके विपरीत निकला है। व्यापकता के विस्तार होने के साथ साथ इसकी धार और विश्वसनीयता दोनों कुंद हुए है? ऐसा क्यों हुआ है?

कभी आपने सोचा है पत्रकारिता का प भी नही जानने वाला व्यक्ति कैसे ये तर्क दे देता है कि फला टीवी ,फला अखबार बिकाऊ है?  ऐसे तर्क क्या हमारे पेशे को सम्मान देते है?

पत्रकारिता को शासन ,सत्तापक्ष के सामांतर चलना चाहिए, उसे सत्तापक्ष से आंख में आंख डालकर सवाल करना चाहिए। लेकिन जब पत्रकार सत्ता के नीतियों का समर्थक हो जाए, तो बस समझ लीजिए वहीं पत्रकारिता का ईमान और उसकी विश्वसनीयता घटती है।

सरकार के बाटने वाली नीतियों का समर्थक होना जागरूक नही नपुंसक होने होने का प्रमाण है। और आज पत्रकारिता नपुंसक हो गई है।

पैसा किसी को भी नपुंसक बना देती है। पैसा आदमी के चेतनाओं को खत्म कर उसे मानसिक दिवालिया बना देती है। और आज पत्रकार और पत्रकारिता के साथ यही हो रहा है।

जब जब पत्रकार सत्ता हितैषी बना है तब तब लोकतंत्र की हत्या हुई है। भारत का लोकतंत्र अभी उतना कमजोर तो नही है, मगर इससे कोई इनकार नही कर सकता कि चाटुकारिता की दरकने इसमे भी दिखने लगी हैं। कभी आपने सोचा है आज जब कोई पत्रकार जनता के तरफ से सरकार से सवाल पूछता है तब भी जनता की ही गाली सुनता है? क्यो हो गई है ऐसी स्थिति?  सोचिए कभी किधर जा रहे है हम? इस माहौल का कोई हल भी है कि नही?

( यह आलेख लोकल डिब्बा के लिए राजीव कुमार ने लिखा है। )