आज हम अपने गांव लौट रहें है
नंगे पैरों से सूनी सड़कों पर
आधे-अधूरे कपड़ों से,
भूखे पेट से और प्यासे गले से
अपने घर की ओर देखते हुए,
आज हम अपने गांव लौट रहें हैं
लेकिन फिर भी हम आपके शहर आएंगे!
आपकी न हमदर्दी से
आपकी बेरहमी से
आपके बेहुदा रवैये से,
अपने आपको आज़ाद करते हुए
आज हम अपने गांव लौट रहें हैं,
लेकिन फिर भी हम आपके शहर आएंगे!
कल हम में से कुछ लोग,
अपने गांव वापस पहुंच जायेंगे,
पर कुछ रास्तों में भूख-प्यास से मर जाएंगे
कुछ रेल की पटरियों पर मार दिए जाएंगे,
कुछ सड़को पर सांस छोड़ जाएंगे,
उनमें से हम कुछ लोग जिन्दा बच जाएंगे,
गांव में अपनेपन का सुकून पाएंगे,
लेकिन फिर भी हम आपके शहर आएंगे!
हम में से जो खुशनसीब होंगे मरने से बच जाएंगे
फिर से हमको, साहूकार, जमींदार, मुखिया और लम्बरदार,
अपनी ‘सामंती विरासत’ से
हमें दोबारा मरने पर मजबूर करेंगे,
फिर से हमारी मेहनत का,
न कोई वाजिब मेहनताना देंगे
फिर न मिलेगी हमें सामाजिक बराबरी,
फिर हम ‘मजदूर’ से ‘नीची जात’ बन जाएंगे
और फिर से हम आपके शहर आएंगे!
हम फिर से शोषित होकर
मरे हुए सपनों से बेहतरी की तलाश में,
खोई हुए हैसियत से
सड़ी हुई सामाजिक व्यवस्था से,
मरी हुई इंसानियत से,
देखेंगे आपके शहर की ओर
हम फिर से आपके शहर वापस आएंगे!
हम आएंगे,
आपका शहर बनाने,
आपका खाना बनाने,
आपका ‘मल-मूत्र’ साफ करने,
आपके लिए ‘सामान’ बनाने,
आपके घर, सड़क, इमारतें, फैक्ट्रियां और कारखाने बनाने
और
मालूम है कि हम बदले में क्या पाएंगे?
जाहिल, अनपढ़, गंवार और जानवर
जैसे आपके शब्दों के उपहार!
लेकिन फिर भी हम आपके शहर आएंगे!
शहरों से ठोकर मिला, हम चल बैठे गांव
फिर लौटेंगे मजदूर
फिर से हमारी मां, बहनें, बीवी ओर बच्चियां
आपका खाना बनाएंगी,
आपके कपडे धोएंगी
आपके मार्बल के फर्श पर, झाड़ू ओर पोछा लगाएंगीं!
हम फिर से आपके बच्चो को तैयार करके
बड़े-बड़े स्कूलों में भेजा करेंगे,
फिर से आपके मुंह से सुना करेंगे,
‘शहर में बहुत भीड़ कर दी इन लोगों नें’
फिर से सारी मुसीबतों की वजह हम बन जाएंगे,
अपराध भी हमारे ही सर मढ़े जाएंगे,
लेकिन फिर भी हम आपके शहर आएंगे!
फिर से हम आपके गटरों में नहाएंगे,
फिर से गटरों में हमारी मौतें होंगी,
फिर से आप खामोश हो जाओगे,
फिर से आप इसका भी दोष हमको ही देंगे,
लेकिन फिर भी हम आपके शहर आएंगे!
फिर से हम जिन्दा लाशें,
अपने मरे हुए सपनों से, नाउम्मीदी ओर जिल्लत की जिंदगी से
फिर से हम आपके रुके हुए शहर को चलना सिखाएंगे,
फिर से आपकी जिंदगी खुशनुमां बनाएंगे
हम फिर से ठोकर खाएंगे
हम फिर से वापस आएंगे,
हम फिर से वापस आएंगे!!
– दीपक कुमार
(यह कविता दीपक कुमार ने लिखी है. दीपक कुमार दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध कर रहे हैं. राम मनोहर लोहिया विश्वविद्यालय से एलएलएम कर चुके हैं. प्रवासी मजदूरों के दर्द को उन्होंने शब्द दिया है)