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कविताईः ‘जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध’

रामधारी सिंह दिनकर (23 सितंबर 1908- 24 अप्रैल 1974)

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित रामधारी सिंह दिनकर हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवियों में गिने जाते हैं। राष्ट्रीय चेतना से भरपूर उनकी रचनाएं आज भी साहित्य-प्रेमियों की जबान पर हैं। आज दिनकर का जन्मदिन है। इस मौके पर उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत है उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय कविता – ‘समर शेष है’

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो।
किसने कहा! युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा! और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से?
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है।
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार।
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है।
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज।
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में।

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समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा।
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा।

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं।
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं।

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे।
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे।

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो।
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोड़ेंगे।
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर।
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर।

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं।
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है।
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल।
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल।

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना।
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना।
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे।
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे।

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध।
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।

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