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निर्मला (हर युग की फेमिनिस्ट नावेल )

चेतन भगत की ‘वन इंडियन गर्ल’ पढ़ने वाले सो कॉल्ड ‘फेमिनिस्ट’ पाठक और फेमिनिज्म के नाम पर वैक्स करवाकर औरतों का दुःख समझने वाले लेखकों को फूहड़ और सस्ती साबित करती है प्रेमचन्द जैसे लेखकों की निर्मला जैसी नितांत करुण उपन्यास| प्रेमचंद की ‘निर्मला’ का महिला केन्द्रित साहित्य के इतिहास में अपनी एक अलग जगह है |यह कहानी भले ही प्रेमचंद ने उस युग में लिखी हो ,पर यह हर युग की कहानी है |किसी ने सच ही कहा है कि “हाय अबला !तेरी यही कहानी ,आँचल में है दूध और आँखों में पानी|”

निर्मला एक 15 साल की सुन्दर लड़की है|निर्मला के पिता का देहांत हो जाता है |दहेज़ का कोई उपाय ना होने पर उसका योवन ही उसका दहेज़ बन जाता है |एक अधेड़ उसका पति बन जाता है और इस परमेश्वर की कृपा से जिंदगी जंग हो जाती है |एक अबोध मन की लड़की को एक सौतेली माँ बनना ज्यादा आसान लगा है बजाय एक बीबी बनने के |औरत के हिस्से में स्वर्ग कितना आता है और नरक कितना ,जिसकी इस किताब में अच्छे से व्याख्या की गई है|निर्मला का पति मुंसी तोता राम,तीन बेटे मंसाराम, जिया राम और सियाराम उसके जीवन के पात्र ही नहीं है बल्कि इस करुण कहानी के सूत्रधार भी हैं |

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प्रेमचंद आज नहीं है| अगर होते तो फेमिनिज्म के इस दौर में वो कोई न कोई बुकर प्राइज अपने नाम जरुर ले जाते| वो अपने आप में एक जमीनी लेखक थे जिनकी कहानियों में आंचलिक भारत और उसकी दशा का हमेशा ही व्याख्यान मिला है |चाहे वो गोदान हो या गबन| हर उपन्यास अपने आप में समाज की कहानी है, औरतों की कहानी है,आज की कहानी है | प्रेमचंद की भाषा में जहाँ आंचलिकता है , लालित्यमकता, पंडित्व और स्वाभाविकता है वहीं हिन्दी ,अवधी और भोजपुरी के शब्दों का ताल मेल भी है| कहीं कोई बनावटीपन नहीं|समय मिले तो इसे एक बार पढ़कर जरुर देखियेगा | यकीं मानिये आपको समझ में आयेगा कि औरतों का दुःख-दर्द समझने के लिए किसी वैक्सिंग की जरुरत नहीं पड़ती| हम और आप अकसर उन्हें ताकते और तारते तो रहें ही हैं ,चलिए कुछ पल ठहर कर उनके जीवन में गहराई से झांक भी लेते हैं |