विभाजन के बाद साहिर ने हिंदुस्तान छोड़ दिया और पाकिस्तान चले गए। उस दौर के मशहूर फिल्म निर्देशक थे ख्वाजा अहमद अब्बास। अब्बास साहिर के दोस्त थे। साहिर के जाने से दुखी भी थे इसलिए उन्होंने इंडिया वीकली नाम के मैगजीन में साहिर के नाम खुला पत्र लिखा और उन्हें यह एहसास दिलाया कि जब तक तुम साहिर लुधियानवी हो तब तक तुम हिंदुस्तानी हो। देश बदलने के लिए तुम्हें अपना नाम यानी कि अपनी पहचान बदलनी होगी। दिल भी एक अजीब डाकिया है कि बात अगर वहां से निकले तो सही पते पर पहुंच ही जाती है। अब्बास साहब के दिल से निकली ये पुकार सरहद पार कर लाहौर पहुंच गई। साहिर ने उनका खत पढ़ा और अपनी बूढ़ी मां को साथ लेकर साहिर लुधियानवी भारत लौट आए। उसके बाद जो कुछ भी हुआ वह पूरे एक दौर के इतिहास में सर्वाधिक क्षेत्रफल पर अपनी मौजूदगी रखता है।
कहते हैं कि ग़ज़लों की बहर तभी बनती है जब जिंदगी बे-बहर हो जाए। साहिर का जीवन भी बड़ा बेतरतीब रहा है। 8 मार्च 1921 को लुधियाना में पैदा हुए अब्दुल हय़ी साहिर जब आठ साल के थे तभी माता पिता के अलगाव की दुर्घटना से उनका पाला पड़ा। अदालत में अपने संपन्न पिता के विकल्प को ठुकराते हुए साहिर ने अपनी मां का साथ मंजूर किया और जीवन भर मां के साथ ही रहे। कॉलेज के दिनों में ही उनके शेर उनकी लोकप्रियता को पंख दे रहे थे। उनकी ग़ज़लें उन दिनों काफी लोकप्रिय हो रही थीं। प्रशंसकों का समुदाय तैयार हो रहा था। इन्हीं प्रशंसकों में से एक अमृता प्रीतम भी थीं, जिनसे साहिर को मोहब्बत थी। जीवन भर अविवाहित रहने वाले साहिर की यह पहली मोहब्बत थी जिसके मुकम्मल होने की राह में साहिर का वही नाम आड़े आ गया जिसने उन्हें हिंदुस्तान वापस बुलाया था। साहिर का नाम तो मुसलमान था लेकिन दिल का कहां कोई धरम होता है।
मोहब्बत के लेखकों के लिए ताजमहल का इतिहास एक बेहतरीन विषय है। न जाने कितनी नज़्में और कितनी कविताएं ताजमहल के चमकते संगमरमर पर आशिकों की प्रेमिकाओं का नाम लिखतीं और शाहजहां और मुमताज की मोहब्बत की मिसालें देतीं लेकिन साहिर तो उस पंक्ति से अलग ही थे। तभी तो उन्होंने शहंशाह की मोहब्बत को कुछ इस तरह से कटघरे में खड़ा किया है –
ये चमनज़ार, ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये मेहराब, ये ताक़
एक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़।
मोहब्बत के मामले में साहिर दूसरी पारी भी खेलना चाहते थे। तब की मशहूर पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ उनका नाम काफी जोर-शोर से जोड़ा जा रहा था। कहा जाता है कि साहिर की तरफ से यह एकतरफा मोहब्बत की कोशिश थी। दूसरी बार दिल की बाजी हारने के बाद ही शायर साहिर के कलम ने लिखा होगा
ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है।
ज़ुल्फ़-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है।
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में,
इश्क ही इक हकीकत नहीं कुछ और भी है।
यह इश्क में बार बार असफल होने की वजह से झल्लाए हुए किसी आशिक का ही बयान हो सकता है। कहा जाता है कि इश्क जिंदगी में केवल एक बार ही होता है। अपने प्रेम की श्रेष्ठता को प्रमाणित करने के लिए अक्सर कवियों की कविताएं इसी सिद्धांत का अनुसरण करती हैं लेकिन साहिर ने इस मामले में भी विधान बदल दिया। अमृता से अपने रिश्तों की कहानी के पटाक्षेप को साहिर जिंदगी के एक मोड़ की तरह के देखते हैं, जिसे शायद उन्होंने ही एक खूबसूरत शिल्प दिया है या देने की कोशिश की है।
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना हो नामुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों।
साहिर का मतलब जादू होता है और सच में साहिर जादू ही लिखते थे। “जिंदगी तेरी जुल्फों की घनी छांव में गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थीं”, ये पंक्तियां जिंदगी की एक कसक की तरह हैं जो साहिर को साहिर बनाती हैं। तल्खियां इनकी पहली किताब का नाम है जो 24 साल की उम्र में उन्होंने छपवाई थीं और जो उस नौजवान के तल्खियों से भरे जीवन की भविष्यवाणी की तरह लगती थीं। साहिर ने हिंदी फिल्मों को बहुत सारे हिट गाने दिए। गीतकारों का मूल्य संगीतकारों और गायकों से बिल्कुल भी कम नहीं हैं, इसका आभास सबसे पहले साहिर ने ही बॉलीवुड को करवाया था। संगातकारों और गायकों से एक रुपया ज्यादा मेहनताना लेना साहिर बॉलीवुड में धाक का पैमाना हो सकती हैं।
गुरुदत्त की प्यासा फिल्म के गीतों ने उस दौर में जो तहलका मचाया था उसमें साहिर का बड़ा योगदान था। गुरुदत्त के अवसाद से भरे मुखड़े पर बजने वाले गीत “जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला, हमनें तो जब कलियां मांगी, कांटों का हार मिला” में शायद उनके अपने जीवन की टीस भी शामिल थी। इसी फिल्म में दुनिया को नकारने वाला वह गीत “ये महलों, ये तख़्तों, ये ताजों की दुनिया, ये इनसां के दुश्मन समाजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रिवाज़ों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है”, हिंदी फिल्म-गीतों की लीक बदलने वाली कविता थी। आज साहिर की पुण्यतिथि है। 25 अक्टूबर 1980 को साहिर का शरीर मिट्टी में दफ्न हो गया लेकिन उनके गीतों का साहिर और उनके अद्वितीय व्यक्तित्व का जादू न जाने कितनी सदियों की सैर करेगा उनकी उस बात को झुठलाते हुए, जिसमें वो कहते हैं –
कल और आएंगे नगमों की, खिलती कलियां चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले।
कल कोई मुझको याद करे, क्यूं कोई मुझको याद करे,
मसरूफ जमाना मेरे लिये, क्यूं वक्त अपना बरबाद करे।
मैं पल दो पल का शायर हूं..