नीरज साहब की मानें तो “न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ, बस इतनी सी बात है, किसी की आंख खुल गई, किसी को नींद आ गई।” लेकिन यह इतना भी सामान्य नहीं है। यह हृदयविदारक है कि आज नीरज को नींद आ गई। तकरीबन एक सदी के अंतिम छोर तक की यात्रा तय कर चुके नीरज ने आज इस संसार को अलविदा कह दिया। यह सामान्य नहीं है। यह सिर्फ नीरज ही कह सकते हैं कि “कफन बढ़ा तो नजरें किसलिए तू डबडबा गई।” हम नहीं कह सकते। ये वही कह सकता है जिसने जिंदगी की असलियत से राब्ता कर लिया हो। जो जानता हो कि यह जिंदगी तमाम प्रलोभनों से हमें केवल लुभा सकती है। इसके पास कुछ है नहीं जो हमें दे सके। इसीलिए तो मृत्यु के पैगाम आंसुओ के योग्य नहीं हो सकते। नीरज ने जो कुछ भी हासिल किया अपने बूते किया।
संघर्षों से रिश्ता था उनका। गरीबी और रोग में बीता बचपन, पिता की असमय मृत्यु, प्रेम का एकांतवास। इन तीन तरह की पीड़ाओं ने नीरज का निर्माण किया था। नीरज इसे तन की, मन की और आत्मा की त्रिमुखी पीड़ा बताते थे। वह कहते थे कि बिना पीड़ा के कविता नहीं निकलती। उनके मुताबिक पीड़ा ही कविता की जन्मदात्री है। अपनी पीड़ाओं को इतना सम्मान कौन देता है? नीरज ने दिया। आत्मा की पीड़ा से दुखी नीरज ने कविता को आत्मा का सौंदर्य बताया। पीड़ा का भी सौंदर्य जिसने प्रस्तुत कर दिया वही तो नीरज है।
पीड़ा ही तो है उनके गीतों में। उनके ग़ज़लों में। उनकी कविताओं में। एक अदृश्य घाव, एक अनजान अभाव। जिन्हें शब्द देते-देते गोपालदास सक्सेना महाकवि नीरज बन गए। हिंदी साहित्य की कवि सम्मेलन परंपरा को उन्होंने काफी समृद्धि दी। नीरज का एक दौर था। उस दौर के बारे में हमने सिर्फ सुना है, देखा नहीं है। इधर कई सालों से उम्र के पेंचोखम से मजबूर नीरज कवि सम्मेलनों में कम ही दिखते थे। लेकिन एक दौर में हिंदी की वाचिक कविता शाखा में नीरज का जलवा था। उनके गीतों के आगे सर्दी,गर्मी,दिन रात जैसे बाधक हाथ बांधे खड़े रहते थे और सामने हजारों की संख्या में नीरज के चाहने वाले हाथ और दिल खोलकर दाद पर दाद देते।
और यह ऐसे ही नहीं था। उनकी पंक्तियों में, उनके शब्दों में, उनके भावों में ऐसी अभिव्यक्तियां होतीं जिसे हर कोई अपनी कहन समझता। अपनी अभिव्यक्ति समझता। हर किसी को ये बातें अपने दिल की बातें लगतीं। और इसीलिए इन्हें सुनकर हर कोई नीरज हो जाता। निराशा, नवजीवन, प्रेम, सौहार्द जैसी भावनाएं नीरज की कविताओं का केंद्रीय भाव हैं। बहुत से लोगों ने उन्हें निराश कवि कहा। उनकी आलोचना की। लेकिन नीरज भावों की अभिव्यक्ति के मामले में अडिग रहे। उन्होंने वही लिखा जो उनके दिल ने कहा। जब दुखी हुए तो लिखा – “मैं जन्मा इसलिए कि थोड़ी उम्र आंसुओं की बढ़ जाए..” , जब निराश हुए तो बोले –
“गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए।
साथ के सभी दिए धुआं पहन-पहन गए
और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे।”
आत्म निराशा में तो जो कुछ कहा सो कहा, नीरज अपनी कविताओं मे निराश लोगों को झिड़कते हुए भी दिखाई पड़े। जीवन के कृत्रिम लक्ष्यों से हारकर बैठे किसी मानस को फटकारते हुए नीरज ने कहा – “कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है।” किसी द्वार पर उदासी देखकर पीड़ा के राजकुंवर बोले – “सृजन है अधूरा अगर, विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी।” खून से लथपथ सामाजिक संबंधों से द्रवित महाकवि की कलम ने लिखा – “आग बहती है यहां गंगा में भी झेलम में भी, कोई बतलाए कि कहां जाके नहाया जाए।” तो वहीं शायद अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए भी नीरज बोले – “तब मानव कवि बन जाता है, जब उसको संसार रुलाता है।”
एक नहीं अनेक पंक्तियां जो केवल नीरज के दिल की अभिव्यक्ति नहीं थीं बल्कि हम सबके जीवन के किसी न किसी हिस्से की हमारी अपनी अप्रस्तुत कहन थी। नीरज के साथ ‘थे’ ‘था’ ‘थीं’ लगाना दुखद है। लेकिन यह सच है कि नीरज अब कभी नहीं गाएंगे। यह कहने पर भी कि – “जमाने को खबर कर दो कि नीरज गा रहा है”, नीरज नहीं गाएंगे। नीरज चले गए। वहीं, जहां कुछ दिनों पहले केदारनाथ सिंह चले गए थे और उनसे कुछ दिन पहले कुंवर नारायण। आज हर किसी के होठों पर नीरज के गीत हैं। दिल में नीरज की तस्वीर है। नेपथ्य में उन्ही का गीत – “इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में/ लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में।” इटावा के किसी गांव से चली एक जीवनयात्रा जिंदगी के न जाने कितने पड़ावों से गुजरती हुई उस मुकाम तक पहुंच गई, जिसे तमाम लोग तारा बन जाना कहते हैं। दिल्ली के एम्स से एक तारा चल पड़ा है। आसमान में शायद माहौल ठीक नहीं रहा होगा। आसमान वालों ने शायद गाया होगा – “गीत उन्मन है, ग़जल चुप है, रुबाई है उदास/ ऐसे माहौल में नीरज को बुलाया जाए।” और आदत से मजबूर नीरज चल पड़े, यह जानते हुए कि “जिंदगी गीत थी”
श्रद्धांजलि