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न्यूटन vs ब्रह्मगुप्त: सारे विवाद की जड़ तो ‘अवैज्ञानिक समझ’ है

आरोपों-प्रत्यारोपों का संग्राम फ़िर से चरम पर है। बीजेपी के शिक्षा राज्यमंत्री वासुदेव देवनानी का “विवादित” बयान है कि “ग्रेविटी” की ख़ोज न्यूटन से सैकड़ों वर्ष पहले “ब्रह्मगुप्त” ने की थी।
तो क्या इसमें कुछ विवादित अंश है?
वस्तुतः विवादित से कहीं ज़्यादा “अवैज्ञानिक समझ” का प्रदर्शन है।
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“सेब गिरता है” यह एक फैक्ट है।
“सेब किस कारण (पृथ्वी) गिरता है” यह बूझना हाइपोथिसिस कहलाता है।
और.. “सेब किन नियमों के तहत गिरता है” का प्रतिपादन “थ्योरी” कहलाता है।
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तो मुख्य अंतर यही है मित्रों। पृथ्वी में आकर्षण है, इसका निरीक्षण तो आदिकाल से ही मनुष्य अपने दैनिक अनुभवों में करता आया है। न्यूटन का महत्त्व तो इतना है कि उन्होंने मानव इतिहास में प्रथम बार किसी प्राकृतिक घटना को “गणितीय सूत्रों” में व्यक्त कर पाया था जिस कारण न्यूटन को सच्चे अर्थों में विश्व का प्रथम वैज्ञानिक कहा जाता है।

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यहाँ तक तो ठीक है लेकिन मैं सोशल मीडिया पर चलन देख रहा हूँ कि बीजेपी के मंत्री का मख़ौल उड़ाने के बहाने भारतीय ज्ञान-परम्परा को कूपमंडूक घोषित करने के प्रयास हो रहे हैं। भारतीय मनीषियों की नैसर्गिक मेधा पर ही सवाल खड़े किये जा रहे है अतएव मैंने निश्चय किया है कि मैं प्राचीन भारतीय विद्वानों के कुछ अनसुने-अनकहे पहलुओं से आपका परिचय कराऊँ।
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उससे पहले हमें बात करनी होगी.. Perpetual Motion Machines की।
चित्र में आप देख सकतें हैं कि एक चक्र के साथ कुछ फ्लास्क अटैच हैं जिन फ्लास्कों में मरकरी (पारा) नामक द्रव मौजूद है। चक्र की संरचना कुछ इस प्रकार है कि द्रव अवस्था में मौजूद पारा चक्र की गति के दौरान लुढक कर, चक्र के एक भाग को हमेशा भारी बनाये रखता है। तो अगर आप चक्र को एक बार घुमा के छोड़ दें तो परिकल्पना के तौर पर क्या माना जा सकता है कि पारे तथा चक्र की ज्योमेट्री के कारण यह चक्र अनंतकाल तक बिना रुके घूमता रहेगा?
नही.. चक्र वायु के अणुओं से टकराकर अपनी “गतिज ऊर्जा” खोता रहेगा, साथ-साथ अगर चक्र का एक सिरा भारी है तो चक्र का द्रव्यमान केंद्र अपने-आप सेंटर से हटकर थोड़ा नीचे की ओर प्रतिस्थापित हो जाएगा, जिस कारण चक्र गोल घूमने की बजाय कुछ देर में “पेंडुलम” की भाँति दोलन कर शांत हो जाएगा।
आईडिया फ्लॉप है !!! पर यह काल्पनिक प्रयोग इस संभावना को अवश्य जन्म देता है कि क्या ऐसी “सतत गतिमान मशीनें” अर्थात Perpetual Motion Machines बनाना संभव है जो बिना किसी ऊर्जा के इस्तेमाल के अनन्तकाल तक गतिमान रहकर मानवों की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी कर सकें?
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परपेचुअल मशीनों के अनगिनत प्रस्तावित मॉडल्स आज चर्चाओं के केंद्र में हैं जिनकी विस्तृत चर्चा इस पोस्ट में संभव नही है। इसलिए मैं इस पोस्ट के प्रथम कमेंट में एक वीडियो लिंक पोस्ट कर रहा हूँ जिसे देख आप इन मशीनों के कांसेप्ट तथा प्रायोगिक अवरोधों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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ये विषय अपने आप में काफ़ी रोचक और वृहद है जिस कारण इसे मैं भविष्य में किसी विस्तृत लेखमाला में पिरोने की इच्छा रखता हूँ। फ़िलहाल स्पेस की सीमित उपलब्धता के कारण हम सिर्फ प्रथम प्रकार की परपेचुअल मशीनों की ही चर्चा करेंगे जिनके अनुसार “बिना कोई ऊर्जा इस्तेमाल किये कार्य किया जा सकता है”
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क्या आप ऐसा लाइट बल्ब बना सकतें हैं जो प्रकाश भी दे.. खुद के प्रकाश से ही आसपास मौजूद सोलर पैनल्स को भी चार्ज करे? और उन्ही सोलर पैनल्स से स्वयं को चार्ज भी कर सके?
सुनने में ये कल्पनायें बेहद लुभावनी लगती हैं लेकिन इन सभी अव्यवहारिक कल्पनाओं में सबसे बड़ी ख़ामी यह है कि ये थर्मोडायनमिक्स के कुछ आधारभूत नियमों का अतिक्रमण करती हैं।
1: ऊर्जा को ना उत्पन्न किया जा सकता है और ना ही नष्ट… तो एक निश्चित मात्रा की ऊर्जा से शुरू कर अधिक ऊर्जा को कैसे निर्मित किया जा सकता है?
2: ऊर्जा हमेशा ज़्यादा से कम की ओर बहती है… कम से ज़्यादा की ओर नही। ऊर्जा दस रूपए का वो नोट है जिसे खुला कर आप एक रूपए के दस सिक्कों में तो परिवर्त्तित कर सकतें हैं लेकिन दस सिक्के आपस में मिलकर दस का नोट नही बना सकते।
Entropy Must Increase… It Never Decreases!!!
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ब्रह्माण्ड के आधारभूत नियमों के उल्लंघन के कारण वैज्ञानिकों द्वारा परपेचुअल मशीनों का कांसेप्ट सिरे से नकार दिया जाता है।
फ़िर भी.. कुछ वैज्ञानिक आशावान हैं कि शायद भविष्य में हम ब्रह्माण्ड के आधारभूत नियमों के ढाँचे में कोई लूपहोल ख़ोज पाएं क्योंकि ब्रह्माण्ड में रहस्यों के कई आयाम ऐसे हैं जहाँ ब्रह्माण्ड के नियमों का ढांचा ही चरमरा कर ध्वस्त हो जाता है।
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प्रसिद्ध साइंस-फिक्शन राइटर आइज़क असिमोव की कहानी The God Themselves का नायक 2070 में एक ऐसी मशीन का निर्माण करता है जो ब्रह्माण्ड में उपलब्ध ऊर्जा के इस्तेमाल के बिना ही सभ्यताओं की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने में सक्षम थी। नायक का ये आविष्कार उसे रातोंरात चर्चित कर देता है परंतु जिज्ञासु लोग यह सवाल भी उठाते हैं कि ये “निःशुल्क ऊर्जा” आख़िर आ कहाँ से रही है? और लोगों को पता चलता है कि इस ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत एक ऐसा छेद है जो हमारे ब्रह्माण्ड को समानांतर ब्रह्माण्ड से जोड़ कर समानांतर ब्रह्माण्ड की ऊर्जा को इस ब्रह्माण्ड में आने का मार्ग प्रदान कर रहा है और यही छेद अंततः हमारे ब्रह्माण्ड की मृत्यु का कारण बनेगा।
(इससे अधिक के लिए स्वयं नॉवेल पढ़ें)
यह कहानी एक बेहद रोचक प्रश्न को जन्म देती है.. क्या ऐसा संभव है कि हम हमारे ब्रह्माण्ड में उपलब्ध ऊर्जा के अतिरिक्त किसी अन्य ऊर्जा स्त्रोत के इस्तेमाल से अपनी ऊर्जा ज़रूरतें पूरी कर पाएं?
एक संभावित स्त्रोत ऐसा है और उसका नाम है।
निर्वात की ऊर्जा अथवा डार्क एनर्जी !!!
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जब हम स्पेसटाइम अथवा ब्रह्माण्ड के मूल ढाँचे को निरंतर सूक्ष्मतर स्तर पर आवर्धित (Magnify) करते जाते हैं तो एक समय ऐसा आता है जब हम पाते हैं कि ऊर्जा के कण निरंतर अस्तित्त्व में आते हैं तथा आपस में टकरा कर शुद्ध ऊर्जा में विलीन होकर लुप्त हो जाते हैं।
कणों का ये प्राकट्य-लोप इतना जल्दी होता है कि इन्हें दरकिनार कर देने से भी हमारी गणनाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
पर ये ऊर्जा वास्तविक है और प्रायोगिक रूप से निरीक्षित भी !!!
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ब्रह्माण्ड की 68% भौतिक ऊर्जा इन्ही “क्वांटम फ्लक्चुएशन्स” के रूप में ब्रह्माण्ड के मूल ढाँचे स्पेसटाइम में ही निहित है जिस कारण इसे वैक्यूम एनर्जी अथवा निर्वात की ऊर्जा भी कहा जाता है। यही निर्वात की ऊर्जा वर्त्तमान में हमारे ब्रह्माण्ड के निरंतर प्रसार के लिए भी उत्तरदायी है। यह प्रसार किस प्रकार होता है? इसके स्पष्टीकरण के साथ विश्व में पहली बार “डार्क एनर्जी” के स्वरुप, गुणधर्मों तथा मेकेनिस्म की सर्वसुलभ और सुग्राह्य व्याख्या आप मेरी आने वाली पुस्तक “बेचैन बन्दर” में पढ़ेंगे।
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हम जानते हैं कि हमारे आस-पास यह ऊर्जा मौजूद है लेकिन हम यह नही जानते कि इस ऊर्जा के इस्तेमाल से परपेचुअल मशीनों का निर्माण कैसे किया जा सकता है? बेहद मुश्किल है पर फ़िर भी वैज्ञानिकों ने इसे असंभव की श्रेणी में नही रखा है। सभ्यताओं के वर्गीकरण संबंधी अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों का कथन है कि किसी भी विकसित सभ्यता की प्रगति का अंतिम चरण “परपेचुअल मोशन मशीनों” का निर्माण होगा जिसके प्रयोग से वो अतिविकसित सभ्यताएं बिना किसी सूर्य के अनंतकाल तक अपनी ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने में सक्षम होंगी।
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इस प्रश्न का सही उत्तर तो समय के गर्भ में छुपा हुआ है लेकिन मैंने आपको ये सब आखिर क्यों बताया है?
वो इसलिए… “परपेचुअल मशीन” जैसे असाधारण कांसेप्ट की प्रथम परिकल्पना करने वाले विश्व के प्रथम मनुष्य और कोई नही बल्कि ब्रह्मगुप्त स्वयं थे जिन्होंने इस सिद्धान्त का वर्णन अपनी पुस्तक ब्रह्मस्पुत सिद्धान्त में किया है।
तत्पश्चात इस सिद्धान्त का उत्तरोत्तर वर्णन क्रमशः लल्ला तथा भास्कर द्वितीय के द्वारा भी किया गया है।
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भास्कर अथवा ब्रह्मगुप्त को महान सिद्ध करने के लिए न्यूटन की खोजों का श्रेय जबरदस्ती उनके माथे मढ़ने की ज़रुरत नही। ये दोनों भारतीय मेधावी मनुष्य अपने समय से हजार साल आगे की सोच रखते थे। ज़रुरत बस वास्तविक अध्ययन द्वारा भारतीय मनीषियों के वास्तविक योगदान को वैश्विक मंच पर ले जाने की है।
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विज्ञान और तकनीक के इतिहास में “एक पत्थर द्वारा दूर रहकर भी किसी को चोट पहुँचाई जा सकती है” सोचने वाले मनुष्य का मोल आधुनिक मिसाइल बनाने वाले मनुष्य से कहीं कमतर नही है।
और ना ही प्रथम बार पत्थर रगड़कर आग जलाने वाले मनुष्य का योगदान न्यूक्लियर ऊर्जा की खोज करने वाले अल्बर्ट आइंस्टीन से कमतर है।
भास्कर हों अथवा न्यूटन अथवा लाखों वर्ष पूर्व सर्द दोपहरी में अपनी गुफा में पत्थर को तराशकर कुल्हाड़ी की शक्ल देता प्राचीन मनुष्य… सभी ने अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुसार मानव प्रगति की यात्रा में सार्थक योगदान ही दिया है।
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विज्ञान एक सतत यात्रा है। छोटा हो अथवा बड़ा.. हर योगदान महत्त्व रखता है।


यह लेख विजय सिंह ‘ठकुराय’ की फेसबुक वॉल से लिया गया है।