कैलेंडर/ मनीष पोसवाल
बरस के बीतते इन आखिरी दिनों में
कैलेंडर की अहमियत घट रही है।
खतरे की घंटी बज रही है ,
भीत के कानों में ,कमरे के कोनों में,
खुश नहीं है खूँटी,
समझ रही है साजिश साल की।
नहीं चाहती उतारना कैलेंडर को,
मगर वक्त के आगे किसकी चली।
सालाना हिसाब दर्ज है समय का
कई कवायदों व किस्सों का दस्तावेज है
हर दिन के साथ पुराने होते इस कैलेंडर में
दीवारघड़ी के कांटो की हर टिकटिक
बेचैन कर रही है कैलेंडर को,
कि नये बरस की आमद
रद्दी बना देगी उसके अस्तित्व को।
आमने-सामने की भीत अपलक देख रही है
एक दूसरे को।
किवाड़ भी बस चरमराकर
कसक पूरी करता है अपने मन की
रोज घूमने वाला पंखा भी सर्दी के कारण
बंद है महीनों से,
चाहता है चकराना घूम-घूमकर
बस हवा आती है बाहर से सर्द होकर
कैलेंडर के पन्ने फड़कते हैं।
तारीखों का बेहिसाब दर्द होकर
छत तांक रही है जमीन को
कैलेंडर चुप है,
बाहर बोल रहा है
गली का आवारा कुत्ता।
(लेखक कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता के छात्र हैं)