1933 के वक्त के भारत की बात करें तो आजादी का संग्राम और देशभक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अपने पूरे उफान पर था। ऐसे माहौल में स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य की आवाज में हिंदुस्तान की पीड़ा को गाने के लिए एक गीतकार का सृजन जारी था। बर्तानवी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह और हिंदुस्तान के गौरवशाली इतिहास के गायन के उस दौर में इस देश के वर्तमान की हकीकत पर उंगली रखने का साहस रखने वाले दुष्यंत कुमार त्यागी इसी साल 1 सितंबर को बिजनौर जिले राजरुपपुर नवादा में पैदा हुए थे। बिजनौर वही धरती है जहां महर्षि कण्व का आश्रम है, और जहां से भारत नाम के इस प्राचीनतम भूमि-भाग के नामकरण की पटकथा का शुभारंभ हुआ था। महाराज दुष्यंत और शकुंतला के दिव्य प्रेम का गवाह और महाराज भरत जैसे साहसी,वीर और निर्भय बालपन का साक्षी।

तपस्या, प्रेम और वीरता के इतिहास से सिंचित इस धरती पर अगर दुष्यंत कुमार जन्म लेते हैं तो उनकी रचनाओं में निर्भयता और साहस का प्रतिबिंब होना स्वाभाविक है। अब इन पंक्तियों पर ही गौर कीजिए –

मैं इन बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत कुमार साहित्य के उन कुछ चुनिंदा रत्नों में से एक हैं जिनका जीवनकाल बेहद छो़टा रहा है। मात्र 42 साल तक जीने वाले हिंदी के इस अनुपम और आदि गजलकार ने अपने छोटे से जीवन के बड़े अनुभवों को कुछ इस कदर शब्दों में बांधा कि उससे बनी उनकी हर गजल या कविता सामाजिक और राष्ट्रीय भावनात्मक पीड़ा का प्रतिनिधित्व करने लगीं। लोग उनकी हर गजल को खुद से जुड़ा हुआ मानने लगे। उससे निकटता महसूस करने लगे। यही कारण है कि हिंदी गजल की दुनिया में जितना दुष्यंत सराहे गए और जितनी उन्हें लोकप्रियता मिली वो आज तक कोई हिंदी का कवि या गजलकार हासिल नहीं कर पाया है। दुष्यंत मनमौजी किस्म के व्यक्ति थे। प्रतिकूलता के माहौल में भी सच की नब्ज पर उंगली रखने की उनकी हिम्मत ही उन्हें साहित्यकार के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्यकार की संज्ञा देती है। समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के कंधों पर हाथ रखती उनकी गजलों ने उन्हें हिंदुस्तान का सबसे लाडला गीतकार बना दिया।

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ।
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ।

दुष्यंत देश के उन करोड़ों वंचित लोगों की आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके हितों के दावों पर इस देश ने आजादी हासिल की और जिनकी भलाई के दावे आज भी सरकारों की कुर्सियों के तख्त बनते हैं-

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।

दुष्यंत की एकमात्र गजल कृति साए में धूप है। इसकी लोकप्रियता के बारे में मेरे लिए कुछ भी कहना सूरज के परिचय पर प्रकाश डालना होगा। तारीख की दीवारों पर दर्ज हर क्रांति की मशाल और हर क्रांतिकारी का सबसे ज्वलंत नारा उनकी एक ग़जल, जिसके बिना आज भी कोई भी बड़ा आंदोलन अपनी पूर्णता को सोच भी नहीं सकता-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

हिंदी साहित्य के पहले गजलकार माने जाने वाले दुष्यंत ने गीत, कविता, नवगीत आदि साहित्यिक विधाओं में भी हाथ आजमाया था। लेकिन उनके गजलों के प्रचंड तेज के आगे उनकी छवि धूमिल पड़ गई। दुष्यंतकाल में अज्ञेय और मुक्तिबोध अपनी लोकप्रियता के मामले में चरम पर थे। यह वो दौर था जब गीतों और नवगीतों पर नई कविता अपनी धौंस जमाने की कोशिश कर रही थी। ऐसे दौर में हिंदी साहित्य में गजलों को न सिर्फ शामिल कर बल्कि सरल और सुबोध्य शब्दों में सजाकर उन्हें जनमानस की जिह्वा पर स्थापित करने का कारनामा दुष्यंत ही कर सकते थे। दुष्यंत के लिए मशहूर उर्दू गजलकार निदा फाजली कहते हैं कि उनकी नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। इस बात की पुष्टि को आप उनकी इन रचनाओं में देखिए –

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कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

जिस तरह चाहो बजाओ तुम हमें
हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो,
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ।

दुष्यंत अपनी रचनाओं में केवल क्रांति ही नहीं करते थे। शायर अपनी गजलों में भले मशाल, आग, क्रांति जैसे भारी-शब्दों का इस्तेमाल कर ले, लेकिन वह भी अपने आपको पूरा तभी मानता है जब उसकी कलम मोहब्बत की स्याही से दिल के अफसाने लिखने लगती है। दुष्यंत की मोहब्बत भी थोड़ी अजीब थी। आप भी देखिए –

एक जंगल है तेरी आंखों में,
मैं जिसमें राह भूल जाता हूं।

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।

वो घर में मेज पे कोहनी टिकाये बैठी है,
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगों।

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले ,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

गजलों की बहर से निकलकर दुष्यंत ने जब छंदों का श्रृंगार किया तो कभी एक हारे हुए को संजीवनी मिली, एक मोहब्बत करने वाले को प्रेमाभिव्यक्ति का गीत मिला तो कभी समष्टि की सनातन परंपरा में सत्य की जीत की संभाव्यता पर पुनः हस्ताक्षर हुए।

अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर,
नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर।
उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है,
एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।
तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

दुष्यंत ने अपने साहित्य में जो कुछ भी लिख दिया है वो आने वाले कई युगों तक लोगों के कंठ से गाए जाते रहेंगे। उनकी प्रांसगिकता कभी खत्म नहीं होगी। इसलिए भी क्योंकि उनकी लिखी हर रचना एक सच्चे हृदय में तमाम दुनियावी विसंगतियों पर उठते प्रश्न की सबसे सशक्त आवाज थी। उनका हर कथन या तो सामाजिक वरीयताओं में छल-कपट से नीचे धकेल दिए गए लोगों की आवाज थी या फिर शिखरों पर बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारियों को याद दिलाने वाला बयान था।

गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।