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Corona: सरकारी लाचारी और बेशर्मी का संगम, जहां से चले वहीं रह गए

कोरोना वायरस

कोरोना वायरस (Corona) ने पूरी दुनिया की परीक्षा ली. भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी लचर है, इसकी सच हमने देखा. पिछले साल आई इस महामारी के एक साल बाद भी यह कहा जा सकता है कि हमने स्वास्थ व्यवस्था में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं किया है. बदलाव या बेहतरी के नाम पर हमने सिर्फ मास्क और जुगाड़ वाले वेंटिलेटर बनाना सीखा है. सैनिटाइजर के नाम पर एल्कोहाल मिले नीले घोल और न जाने क्या-क्या बेचकर हम खुद को कोरोना से लड़ने के लायक समझ रहे हैं. वैक्सीन बनाना और बड़े स्तर पर टीकाकरण एक सफलता ज़रूरी है, लेकिन इसके परिणाम तुरंत दिखने वाले नहीं हैं.

तैयारियों के दावे निकले खोखले

मार्च 2020 में पहली बार लॉकडाउन लगाया गया. दावा किया गया कि इससे हमें तैयारियों में मदद मिलेगी. यह भी कहा गया कि पूरी दुनिया के लिए यह मौका है कि स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर किया जा सके. लेकिन आज सच्चाई यह है कि अस्पतालों में फिर से ऑक्सीजन, बेड, वेंटिलेटर और अन्य सुविधाओं की कमी है. रेमिडेसेवर नाम की दवा की खुलेआम कालाबाजारी हो रही है. इन सबके के तंत्र सिर्फ लाचार है. लाचार है इसीलिए आखिरी चारा सिर्फ लॉकडाउन दिख रहा है. तंत्र, सिर्फ और सिर्फ लोगों से उम्मीद कर रहा है कि लोग मास्क लगाएं, घर से न निकलें, सैनिटाइजर का इस्तेमाल करें.

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हालांकि, तंत्र यह नहीं बता पा रहा है कि लोग घर से न निकलें तो घर कैसे चलाएं. तंत्र के बाद इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि चुनावों की भीड़ कोरोना गाइडलाइन्स का उल्लंघन क्यों नहीं है. कुल मिलाकर ऐसा हाल है कि कोरोना में सरकार जो चाहे कर सकती है, आप संयमित रहें. लोगों के पास आखिरी चारा ये है कि वे भूख या बीमारी में से एक को चुनें. ऐसे में कई लोग यह सोचकर घर से निकल रहे हैं कि जब मरेंगे तो देखा जाएगा, अभी तो परिवार का पेट पालना ज़रूरी है.

भूख या बीमारी में से एक को चुनने को मजबूर हुए लोग

मैंने कई लोगों से बात की. उनका कहना है कि बीमारी तो किसी को भी हो सकती है, उससे डरकर परिवार को भूखा क्यों मारें? लोगों का भी तर्क सही है. भूख से लड़ने के लिए लोग जान दांव पर लगा रहे हैं. जो बीमार हो जा रहा है, तो अस्पताल में बेड या दवाई के इंतजार में दम तोड़ ही दे रहा है. मरने के बाद अंतिम संस्कार में भी इंतजार करना पड़ रहा है. ऐसे में सवाल है कि इसका जिम्मेदार है कौन?

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दरअसल, विकास के बड़े-बड़े दावे करने वाले नेताओं और हमारे इस तंत्र ने स्वास्थ्य के मामले में बेहद घटिया प्रदर्शन किया है. 1947 में आजादी के बाद से आज तक जिला स्तर पर देखा जाए तो एक जिला अस्पताल होता है, जिसकी क्षमता बहुत हुई तो 100 बेड हो सकती है. इसमें से वेंटिलेटर शायद 10 प्रतिशत भी न हों. ज्यादातर जिला अस्पतालों में सफाई और दवाई की दवा बेहद खराब है. ध्यान रहे कि सरकार की ओर से यह जिले का सबसे बड़ा अस्पताल होता है.

जिला स्तर पर बदहाल है सरकारी स्वास्थ्य तंत्र

मतलब लगभग 10-15 लाख की जनता के लिए एक जिला अस्पताल, कुछ सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और गिनती के प्राथमिक स्वास्थ केंद्र. कुल मिलाकर अगर लोगों को ऐडमिट करने की बात आए तो शायद 200 लोग भी ऐडमिट न किए जा सकें.

ऐसे में प्राइवेट अस्पताल फलते-फूलते हैं और इलाज के नाम पर मोटी फीस वसूली जाती है. खैर, अस्पताल बनाने वाले कोराबारी जितना निवेश करते हैं, उसके हिसाब से उनकी फीस भी ठीक ही होती है. दुर्भाग्य ये है कि स्वास्थ्य व्यवस्था सरकारों के अजेंडे में सबसे पीछे होती हैं. अस्पताल बनाना, राजनीति का हिस्सा बिल्कुल भी नहीं है. ऐसे में पिछले एक साल में भी क्या ही हो जाता. हमें तो आदत ही है आग लगने पर कुआं खोदने की. पिछले एक साल में भी हमने यही देखा है. केस बढ़ने लगे तो ट्रेनों में आइसोलेशन सेंटर बनाने की बात कही गई. केस कम होने लगे तो चुनाव कराए जाने लगे.

जहां से चले थे वहीं का वहीं रह गया तंत्र

नतीजा ये है कि 2020 में हम जहां से चले थे, आज भी वहीं खड़े हैं. या यूं कहें कि उससे भी पीछे जा रहे हैं. पिछली बार अंतर इतना था कि लॉकडाउन लगाकर सबको कैद कर दिया गया था और इस बार चुनाव चल रहे हैं. कुंभ मेला चल रहा है, आईपीएल चल रहा है. बस परीक्षाएं रोक दी गई हैं. बाकी सब बढ़िया है.

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