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कश्मीर को जोड़ने वाली डोर अब सड़ रही है!

Kashmiri Muslim protesters shout pro freedom slogans as they clash with Indian policemen in Srinagar, Indian controlled Kashmir, Monday, July 11, 2016. Indian authorities were struggling Monday to contain protests by Kashmiris angry after several people were killed in weekend demonstrations, as youths defied a curfew to rally in the streets against the killing of a top anti-India rebel leader. (AP Photo/Dar Yasin)

कश्मीर में उग्रवाद, उन्माद, कट्टरवाद, पहले से नहीं रहा है। कश्मीर में कई सूफी संस्कृतियां पैदा हुईं हैं। कश्मीर सूफी, संतो का स्थल था। वहां विभिन्न धर्मों के प्रचारक, विचारक शांति के लिए जाते थे। राजतरंगिणी में कल्हड़ ने एक बार कहा था कि कश्मीर के लोग पुष्प की तरह कोमल होते है।

1953 में फारुख नेहरू समझौता (जिसे हम दिल्ली समझौता से भी जानते है) जिसके अंतर्गत कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया, उस समय इसे लेकर देश के उग्र हिंदुत्ववादी संगठनों ने काफी विरोध किया था लेकिन नेहरू यह मानते थे कि कश्मीर के लोग बहुत भोले होते हैं और हम इस विशेष दर्जे को धीरे-धीरे क्षीण कर देंगे और उन्हें पता भी नहीं चलेगा।

अब आखिर यह सवाल उठेगा कि जब कश्मीर के लोग इतने शांति प्रिय हैं तो आज वहां आतंकवाद ने अपनी पैठ कैसे बना ली है, वहां के अधिकतर लोग भारत विरोधी भावनाओ के अंतर्गत आतंकियों का समर्थन क्यों कर रहे है?

दरअसल, जब भारत आजाद हुआ था तब भारत तीन खंडो में था। एक पाकिस्तान, एक हिंदुस्तान और एक हिंदुस्तानी रियासतें थी। लार्ड माउंटबैटन ने देशी रियासतों को यह अधिकार दिया था कि वे अपनी स्वेक्षा से,अपनी स्वायत्तता को देखते हुए चाहें तो  एक अलग राज्य ((भारत और पाकिस्तान से अलग एक आजाद मुल्क) हो सकते हैं। उस समय अधिकतर रियासते इस स्थिति में नहीं थीं कि वे अलग रह सकें इसलिए कुछ रियासतें पाकिस्तान और कुछ हिंदुस्तान में आ गईं लेकिन जूनागढ़ ,हैदराबाद,और कश्मीर ही ऐसी रियासतें थीं, जिनके मुखिया ने भारत में विलय से इनकार कर दिया. हालांकि एक साल के अंदर हैदराबाद और जूनागढ़ भारत मे शामिल हो गए लेकिन कश्मीर अब भी इससे इनकार  करता रहा ।

वहां के महाराजा हरि सिंह  आजाद रहकर  कश्मीर को स्विट्जरलैंड की तरह विकसित करने का सपना देखते थे लेकिन उनका यह सपना ट्रेजडी साबित हुआ और कश्मीर की आजादी के कुछ समय बाद ही पाकिस्तान ने कबाइलियों से कश्मीर में हमला करा दिया। उस समय कश्मीर इस स्थिति में नहीं था कि वह उनसे लड़ सके इसलिए वहां के महाराजा दौड़कर दिल्ली आए और भारत सरकार से सहायता मांगी।

पंडित नेहरू सहायता को तैयार तो हो गए लेकिन एक शर्त पर कि कश्मीर भारत में शामिल हो जाए। मजबूरन महाराजा विशेष परिस्थिति में भारत में शामिल हो गए। विशेष परिस्थिति के अंतर्गत भारत को सिर्फ विदेशी,संचार,और रक्षा का जिम्मा दिया गया।

बाद में शेख अब्दुल्ला ने कहा कि कश्मीर की जनता एक महाराजा के हिसाब से नहीं चलेगी, हिंदुस्तान में रहने का निर्णय कश्मीर की आवाम करेगी। (हालांकि उन्होंने ये भी कहा था कि भारत में रहना कश्मीरियो के हक में है लेकिन भारत में जो उग्र हिंदुत्व का विकास हो रहा है,उससे हमें डर लग रहा है कि क्या हम भारत में सुरक्षित हैं।)

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पंडित नेहरू के एक कश्मीरी होने के नाते उनकी भावनाएं कश्मीरियों के साथ थी और वह जनमत संग्रह को तैयार हुए। संयुक्त राष्ट्र में जाकर उन्होंने जनमत संग्रह करने की मांग भी की। भारत का संविधान  1950 में लागू हो गया लेकिन कश्मीर का संविधान 19 53 में लागू हुआ। कश्मीर का संविधान भारत के संविधान का परस्पर पूरक था लेकिन उग्र राष्ट्रवादियों को यह अनुचित लगता था।

समय बीतता गया  लेकिन कश्मीर में जनमत संग्रह की बात टलती गई, गांधी की ह्त्या के बाद भारत सरकार में भी कट्टरता, सत्ता सुख भोगने की इच्छा प्रबल हो गई। उन्हें लगा कि कश्मीरियों को ताकत और सैन्य बल से हम भारत में बिना जनमत संग्रह के शामिल कर लेंगे।

कश्मीर में संवैधानिक चुनाव हुआ ही नहीं, वहां की जनता को कभी भी सत्तासुख मालूम ही नहीं हुआ। वहां चुनाव में हमेशा धांधली होती रही है। कांग्रेस अपने सत्तासुख के लिए हमेशा जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता में आती रही, कभी वह उम्मीदवारों को अयोग्य करार दे देती तो कभी वह उम्मीदवारों के पर्चे निरस्त कर देती थी। (जाहिर सी बात है जहां लोकतांत्रिक शासन ना हो लोगों का विद्रोह उस शासन के विरुद्ध बढ़ता जाता है,यही कारण है कि आज कश्मीरी अपने अधिकार के लिए जागरूक हुए  और लोकतांत्रिक तरीके से सफलता ना मिलते देख, बंदूक की तरफ अग्रसर हुए।)

सन 1977 में मोरार जी देसाई के जनता पार्टी के नेतृत्व में ही वहां एकमात्र निष्पक्ष हुआ है। फिर 1984 में इंदिरा गांधी ने तानाशाही दिखाते हुए फिर से वहां अपनी सरकार अलोकतांत्रिक तरीके से स्थापित कर ली।

कश्मीर को कभी कश्मीरियत की निगाह से नहीं देखा गया है, उनके साथ हमेशा छल कपट हुआ है। जब तक शेख अब्दुल्ला जिंदा रहे कश्मीर में विद्रोह के स्वर दबे थे लेकिन 1982 में उनकी मृत्यु के बाद वहां अलगाववादी आंदोलन शुरू हुआ। जिसे पाकिस्तान ने हवा देना शुरू कर दिया। बाद में रही सही कसर 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस ने पूरा कर दिया। इन घटनाओं और भारत सरकार के रवैये से कश्मीर में अलगाववाद अपनी पैठ बनाता चला गया।

कश्मीर के लोगों की स्थिति आज भी वही है, जो आजादी से पहले की थी। मानवाधिकार तो वहां है ही नहीं। आजादी के समय से ही वे सशस्त्र बल से खुद को घिरे हुए देखते आए हैं, कभी वे आजादी की हवा में सांस नहीं ले सके हैं। कश्मीर के लोग आज अशांत हैं, उसकी वजह उनकी जागृति और उनका सपना है। आज वह जागृति तो बाकी रह गई है लेकिन सपने को मार दिया गया है।

कश्मीर को हम कभी बंदूक और शास्त्रों के बल पर नहीं जीत सकते। इस उग्रनीति का नतीजा आज हम देख रहे है। उन्हें प्यार से ही जीता जा सकता है, मनाया जा सकता है और यही एक उपयुक्त कूटनीति होगी। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब कश्मीर में अलगाववाद एक ज्वालामुखी की तरह फूट जाएगा और भारत सरकार कुछ नहीं कर पाएगी।

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