छल, कपट, प्रपंच और संभावित धोखा! वर्तमान में राजनीति का यह स्वरूप महाराष्ट्र में देखने को मिल रहा है। कपट हर किसी के मन में है। मौका मिलने पर हर कोई छह करने को तैयार है। महीने भर से चल रही बैठकों में प्रपंच हो रहा है। हर कोई तैयारी कर रहा है। मौका मिलते ही ‘दोस्त’ को धोखा देना है। शिवसेना ने अपनी वैचारिक सहयोगी बीजेपी को धोखा देकर शुरुआत कर दी है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा- मैं सांप्रदायिकता के मुद्दे पर समझौता करने की बजाय बार-बार चुनाव हारना पसंद करूंगा। नेहरू वर्तमान में हर काम के ‘जिम्मेदार’ हैं। आलम यह है कि अब बीजेपी ही नहीं कांग्रेस भी यही मानने लगी है। अगर ऐसा न होता तो वह नेहरू के जन्मदिन पर घोर सांप्रदायिक छवि वाली पार्टी शिवसेना से हाथ मिलने की ‘साजिश’ ना कर रही होती।
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जनता को भी छल-कपट ही पसंद है
दरअसल, सरल छवि की राजनीति हिंदुस्तान को कभी पसंद नहीं रही है। छल-कपट वालों को ही यहां नेता माना जाता है। जनता उन्हें ही अपना सिरमौर चुनती है। और अपनी ही चुनी सरकार को कार्यकाल भर कोसती रहती है। महाराष्ट्र में भी सबकुछ यही चल रहा है। शरद पवार के कहने पर शिवसेना ने बीजेपी का साथ तो छोड़ दिया लेकिन अब वह अधर में लटक गई है।
शरद पवार खुद तो बड़ा तुर्रम खां लगाते हैं लेकिन वह खुद नहीं तय कर पा रहे हैं कि क्या करना है। कांग्रेस अपनी ही विचारधारा और सत्ता के लालच के बीच फंसी हुई है। शिवसेना ने नई पीढ़ी में संभवत: कट्टरता की विचारधारा छोड़ने का मन बना लिया है। बीजेपी भविष्य देखते हुए वर्तमान में चुप है। बीजेपी जानती है कि वह तो कभी भी सरकार बना सकती है। फिलहाल, वह देखना चाहती है कि महाराष्ट्र में पहले बर्बाद कौन होता है। अगर शिवसेना की सरकार नहीं बनती है तो वह सबकुछ हार जाएगी।
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शिवसेना लौटी तो ‘ठाकरे’ वाली अकड़ जाती रहेगी
बीजेपी के पास वापस जाने पर उसकी ‘ठाकरे’ वाली अकड़ जाती रहेगी। लौटने का मतलब होगा कि वह आगे कभी चढ़कर बोल नहीं पाएगी। कांग्रेस और एनसीपी के पास खोने को कुछ नहीं है। एनसीपी मौके का फायदा उठाकर शिवसेना को निपटाने में लगी हुई है। इसी में अपना फायदा देखकर बीजेपी भी चुप है। कुल मिलाकर महाराष्ट्र में वह सबकुछ हो रहा है, जिससे नेताओं का ही फायदा-नुकसान है।
जनता आज भी इंतजार में है कि उसके खेतों में हुए नुकसान का उसे मुआवजा मिल जाए। उसे आज भी इंतजार है कि सड़कों का रुका पड़ा काम शुरू हो जाए। उसे आज भी इंतजार है कि कोई विधायक बने तो सही, उसके दस्तखत कराकर अपना कोई काम करवा लिया जाए। बहरहाल, राजनीति के इस रंगमंच में जो प्रहसन खेला जा रहा है, उसका परदा गिरने का वक्त नजदीक नहीं दीखता।