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जब ‘वंदे मातरम’ पर सुभाष चंद्र बोस ने नेहरू को लिखी चिट्ठी

नेहरू और सुभाष चंद्र बोस

‘वंदे मातरम’ को लेकर विवाद आज भी विवाद होते रहते हैं। हालांकि, ये विवाद नए नहीं हैं। ‘वंदे मातरम’ गाने को लेकर शुरुआत में भी कई आपत्तियां की गईं। सबसे बड़ी आपत्ति थि की यह गीत एक धर्म विशेष के हिसाब से भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है। ये आपत्तियां मुसलमानों के अलावा कई सिख, जैन, ईसाई और बौद्ध संगठनों ने भी उठाई।

इसी संदर्भ में साल 1937 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पंडित जवाहर लाल नेहरू को चिट्टी लिखी। इस चिट्ठी में उन्होंने स्पष्ट किया कि सांप्रदायिक आधार पर मुद्दा उठाने वालों की बात कतई नहीं सुनी जाएगी। वंदे मातरम पर हो रहे विवाद को रोकने के लिए कांग्रेस ने महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, अबुल कलमा आजाद और सुभाष चंद्र बोस को लेकर एक समिति बनाई, जिसने इस पर आपत्तियां आमंत्रित कीं।

पेश है सुभाष चंद्र बोस की लिखी चिट्ठी का अंश।

जवाहर लाल नेहरू को,
गिद्धपहाड़
कुर्सियांग
17.10.1937

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प्रिय जवाहर,
आपके पत्र संख्या जी-83/4101 और जी 60 (iii) दिनांक 8 और 9 के समय पर मिल गई थे।
‘वंदे मातरम’ के संदर्भ में हम कलकत्ता में बात करेंगे और अगर आप मुद्दा उठाएंगे तो कार्यकारिणी की समिति में भी इसे उठाएंगे। मैंने डॉ. रवींद्र नाथ टैगोर को भी लिखा है कि जब आप शांति निकेतन आएं तो वे आपसे इस विषय में चर्चा करें।

मैं आप से इस विषय में सदा सहमत रहा हूं कि हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रश्न पर आर्थिक प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है। सांप्रदायिक मुसलमानों को बार-बार हौवा खड़ा करने की आदत है, कभी मुसलमानों को नौकरियों में कम जगह मिली है और अब वंदे मातरम को लेकर। अचानक ही वंदे मातरम का महत्व अधिक बढ़ गया है शायद इसलिए कि इसे लोकसभा में गाया गया और यह कांग्रेस की विजय का प्रतीक बना। राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा उठाई गई कठिनाइयों और मुसीबतों पर हम सहर्ष विचार करने को तैयार हैं लेकिन सांप्रदायिक मुसलमानों की उठाई किसी बात को अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। यदि आज उनकी वंदे मातरम की बात पर उनकी तुष्टि करने का प्रयत्न किया गया गतो कल वे कोई और नई बात उठा देंगे, केवल सांप्रदायिक भावनाओं को उभारने के लिए और कांगेरेस को दुविधा में डालने के लिए।

कांग्रेस की समिति द्वारा यह हल निकाला गया कि वंदे मातरम के केवल दो अंतरे गाए जाएंगे, जिनका कोई धार्मिक पहलू नहीं है। लेकिन इससे हिंदू और मुसलमान सांप्रदायिक तत्व संतुष्ट नहीं हुए। आरएसएस और हिंदू महासभा का कहना था कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और यह पूरा गीत गाया जाना चाहिए। मुस्लिम लीग ने इसी हिंदुत्ववादी सोच को बहाना बनाकर आजादी के साझे आंदोलन से मुसलमानों को अलग करने के लिए हर तरह के हथकंडे भी अपनाए।

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