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कैसे बनी ‘खूनी’ रेडक्लिफ लाइन?

कुछ 12 से 13 घर होंगे उस रेडक्लिफ़ लाइन पर, जिसके घर का आंगन तो बंगाल में है पर छत का छज्जा बांग्लादेश में पड़ जाता है। हर रोज वाघा बॉर्डर पर तल्ख तेवर दिखाते हुए हिंदुस्तान और पाकिस्तान के जवान अपने झंडे को सलाम कर सूरज ढलते ही एक दूसरे के मुंह पर गेट बंद कर देते हैं। पर ये भूल जाते हैं कि रेडक्लिफ़ लाइन के इस पार(बंगाल में) हमारे यहां जो सूरज उगता है वो उस पार पकिस्तान में ही जा कर ढलता है। रेडक्लिफ़ लाइन जिनके खेत से हो कर गुजरी है, उनका दर्द वैसा ही है कि पेड़ हमारा पर फल उस पार गिर जाए तो फल तुम्हारा। यही है रैडक्लिफ़ का दर्द जिससे छटपटाकर इसे बनाने वाला एक रात भी यहां टिक न सका।

ये हैं सायरिल रेडक्लिफ

बात 17 अगस्त 1947 की है। उस दिन सायरिल रेडक्लिफ़ बड़े घबराए हुए थे। इतने घबराए हुए थे कि भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच जो उन्होंने एक लाइन खींची, उसकी चालीस हजार रुपए की फीस तक भारत में छोड़ रातों रात फरार हो गए। क्या उस एक लाइन की इतनी बड़ी कीमत थी कि जिसका मापदंड रेडक्लिफ़ के पास भी नहीं था। आख़िर रेडक्लिफ ने भारत और पाकिस्तान के बीच यह लाइन बनाई कैसे थी? बित्ते से, स्केल से या फीते से ! दरअसल रेडक्लिफ़ जब बंटवारा करने भारत आए तो कुलदीप नैयर भी उस दिन इतने ही उत्सुक थे ये जानने के लिए कि अंग्रेज सरकार का एक सरकारी वकील किस पैमाने से दोनों देशों की सीमाओं को तय करेगा। जो न कोई अंग्रेज प्रशासक था और ना ही कोई मानचित्रकार या भूगोलशास्त्री।
तो आपको जान कर अचरज होगा कि यह लाइन किसी पैमाने पर नहीं खींची गई थी। यह तो तब भी कल्पना से बनाई हुई सीमा रेखा थी जिसे भारत पाकिस्तान दोनों ने स्वीकार कर लिया था और यह आज भी वही मानक रेडक्लिफ़ लाइन है। बस दोनों ओर अब इस डॉटेड लाइन पर ईंट और सीमेंट से बनी दीवारे खड़ी हैं। रेडक्लिफ़ लाइन ने उस दिन 12 लाख लोगों का घर छीन लिया था और न जाने कितनों के खून से अपनी दीवारों को लाल रंग से पुतवाया था।

 

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बहुत साल पहले ट्रिब्यून अखबार को दिए एक इंटरव्यू में नैयर साहब कहते हैं कि जब वो भारत के आखिरी गवर्नर लार्ड माउंटबेटन से सीमा को लेकर सवाल पूछने गए थे तो तब खुद माउंटबेटन नहीं जानते थे कि जमीन का बटवारा किस मापदंड पर होगा। आप इसे किस्मत कहिए या बदकिस्मती कि वैसे तो बाउंड्री कमीशन में 4 सदस्य और भी थे पर अध्यक्ष होने के नाते बंटवारे के वक्त मारे गए लाखों लोगों के खून से रेडक्लिफ़ का ही काला कोट दागदार हुआ।

एक बार नैयर ने सायरिल से बटवारे के बाद पूछा था कि उन्होंने लाहौर को भारत को क्यों नहीं दिया? उस वक्त रैडक्लिफ़ ने कहा था कि “मैं लगभग आपको लाहौर दे देता पर पकिस्तान के पाले में कोई बड़ा शहर नहीं आया है और आपके पाले में बंगाल है तो लाहौर इस नाते पाकिस्तान का हुआ।

बटवारा हुआ भारत और पाकिस्तान के बीच एक तरफ रैडक्लिफ़ पंजाब और लाहौर के खेतों से गुजरा तो दूसरी तरफ बंगाल और बांग्लादेश के बीच पिलर 977 और 7S IND से होकर गुजरा। इस बटवारे को 9 साल बीत गए थे पर पंडित नेहरु ने इसे दिल से नहीं कबूला वहीं जिन्ना जब तक जिंदा रहे इसे लेकर खुश रहे।

कहा जाता है कि इस बटवारे के बाद रैडक्लिफ़ भी दुखी थे और अपने आप को इसके लिए कभी माफ न कर सकें। उस दिन के बाद सायरिल रैडक्लिफ़ भारत कभी नहीं लौटे क्यों कि उन्हें लगता रहा कि अगर वो यहां आएं तो मार दिए जाएंगे। नैयर समेत कई बुद्धिजीवियों ने अक्सर अपनी किताबों और बातचीत में उन्हें बेकसूर और हालात का शिकार व्यक्ति कहा। पर फिर भी सायरिल को नहीं पता उस लड़की का दर्द जिसका पीहर और ससुराल को रैडक्लिफ़ लाइन ने दो देशों में बदल दिया है| रैडक्लिफ़ नहीं जानता उस चरवाहे का दर्द जिसका जानवार चरते चरते रैडक्लिफ़ पार कर जाता है और वापस नहीं आ पाता| रैडक्लिफ़ कुछ नहीं जानता क्यों कि वो लाखों का खून पी चुका है और नहीं पसीझता उसका दिल क्यों कि वो लाखों लाश देखने का आदि हो गया है।