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त्योहार नहीं मातम का दिन है मुहर्रम

 

इमाम हुसैन की शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। यह कोई त्योहार नहीं बल्कि मातम का दिन है. आज भी उनके अनुयायी इस दिन शोक मनाते हैं, काले कपड़े पहनते हैं और मातम करके रोते हैं। ताज़िया जो हर शहर गाँव में आज शाम उठाया जाएगा, यह एक निशानी है कि जिस हुसैन और उनके परिवार की लाशों तक को दफ़्न नहीं करने दिया गया और वो रेगिस्तान में यूँ ही पड़ी रह गयीं।

उनके ताबूत की शक्ल में लोग ताज़िया ले जाकर उसे दफ़्न करते हैं। कई मुस्लिम संगठन ताज़ियादारी का विरोध भी करते आए हैं, जो सिर्फ़ एक पोलिटिकल मूव भर है।  इस दिन अगर आप कुछ न करें तो कम से कम किसी की भावनाओं का भी मज़ाक़ न उड़ाएँ। मुहर्रम का मेला देखने न जायँ क्यूँकि ये किसी की मौत का तमाशा देखने जैसा है.

शक्ति प्रदर्शन बिलकुल न करें…. क्यूँकि जो लोग आज के दिन मारे गए उन्होंने ख़ुद शक्तिशाली होते हुए शक्ति प्रदर्शन नहीं किया तो आप ये लाठी और तलवार भांज कर दुनिया को क्या संदेश देना चाहते हैं?

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पब्लिक प्लेस पर भीड़ लगाकर जाम लगाने से बचें क्यूँकि आप जिसका शोक मनाने आए हैं उसने कभी ज़िंदगी में किसी को तकलीफ़ नहीं दी तो उसके नाम पर आप भी अपने शहरवासियों को तकलीफ़ न दें। ख़ून-ख़राबा फैलाकर या ख़ुद को चोट पहुँचाकर आप हुसैन के संदेश को आगे तक नहीं ले जा पाएँगे….. हुसैन के मानने वाले हैं उनके फ़ालोअर हैं तो हिम्मत दिखाइए। अपने आज पास जहाँ भी ज़ुल्म हो रहा है अन्याय हो रहा है उसके ख़िलाफ़ खड़े होईए, सत्ता- शासक से डरना छोड़िए, किसी की चाटुकारिता से बचिए, अत्यधिक धनोपार्जन से बचिए और कम से कम हुसैन के नाम पर अपने धन और शक्ति का प्रदर्शन न करिए करबला की घटना एक स्कूल है, जिससे आप मानवता सीख सकते हैं…. बशर्ते आप इसे प्रतीकों की भक्ति न बनाएँ।

 

( यह आलेख हैदर रिज़वी ने लिखा है।)