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कभी तो सामने आ बे-लिबास हो कर भी

(तस्वीर- pixabay.com)

कभी तो सामने आ बे-लिबास हो कर भी,
अभी तो दूर बहुत है तू पास हो कर भी.

तेरे गले लगूँ कब तक यूँ एहतियातन मैं,
लिपट जा मुझ से कभी बद-हवास हो कर भी.

तू एक प्यास है दरिया के भेस में जाना,
मगर मैं एक समुंदर हूँ प्यास हो कर भी.

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तमाम अहल-ए-नज़र सिर्फ़ ढूँढते ही रहे,
मुझे दिखाई दिया सूरदास हो कर भी.

मुझे ही छू के उठाई थी आग ने ये क़सम,
कि ना-उमीद न होगी उदास हो कर भी.

(मशहूर शायर भवेश दिलशाद पेशे से पत्रकार हैं और फिलहाल न्यूज18 हिंदी में कार्यरत हैं.)

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