सोनचिड़िया रिव्यू: चंबल की ऐसी कहानियां जिन्हें दिखाने के लिए कई पीढ़ियां गुज़र गईं

“बैरी बेईमान, बागी सावधान।” बहुत छोटी सी बात है मगर इसके मायने इतने गहरे हैं कि हम सब अपने अंदर सदियों तक झाँकते रह सकते हैं। अभिषेक चौबे के निर्देशन में बनी ‘सोनचिड़िया’ चंबल की घाटियों के बीच बुनी हुई कहानी है। अभिषेक इससे पहले ‘इश्किया’, ‘डेढ़ इश्किया’ जैसी फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं। और काफी लंबे समय तक विशाल भारद्वाज के साथ बतौर सह-निर्देशक और सह-लेखक की भूमिका निभा चुके हैं। सोनचिड़िया को देखकर महसूस हुआ कि वो सच में एक अच्छे शिष्य हैं। उनके निर्देशन में वो कसावट और परिपक्वता दिखती है।

फ़िल्म की कहानी है डाकू मान सिंह (मनोज बाजपाई) और उनके गैंग की। डाकू का धर्म है बगावत करना। या कह सकते हैं कि जब बगावत ही आखरी रास्ता बचा हो ज़िन्दा रहने के लिए तो इंसान डाकू बन जाता है। मगर हर रण के अपने नियम हैं। आप उन नियमों को नहीं मानेंगे तो शायद भगवान तो आपको माफ कर दे मगर आप ख़ुद से किस तरह नज़र मिलाएंगे। डाकू मान सिंह ने भी बग़ावत के नियमों के विरुद्ध जाने की ग़लती है जिसका पश्चाताप उन्हें भुगतना ही है। उन्होंने क्या किया और किस तरह किया ये सब जानने के लिए आपका फ़िल्म देखना ज़रूरी है। इससे ज़्यादा कुछ भी बताने से फ़िल्म की कहानी के साथ नाइंसाफी होगी।

लेकिन इतना तय है कि फ़िल्म देखने के बाद आप सम्पूर्ण महसूस करेंगे। आजकल के निर्देशक वक्त की नब्ज़ थामने लगे हैं। उन्हें समझ आने लगा है कि असल ज़िन्दगी में नायक नहीं होते किरदार होते हैं। किरदार वक्त के साथ बदलते हैं, अच्छे या बुरे नहीं रहते। इस फ़िल्म में भी आपको एक भी नायक नहीं मिलेगा। आप हर किरदार के साथ जुड़ेंगे। हर शख्स की कहानी में आपको एक पहलू दिखेगा जिसके साथ आप जुड़ाव महसूस करेंगे। फिर चाहे वो बर्बरता हो या प्रेम।
फ़िल्म के किरदारों की बात करें तो आशुतोष राणा को दरोगा के किरदार में देखना सुकूनदेह था। फ़िल्म में उनके हिस्से मुट्ठीभर डायलॉग हैं और यही उनकी खासियत है।

वो निगाहों और कुटिल मुस्कान के साथ इतना कुछ कर देते हैं कि संवाद खुद गूंगे हो जाते हैं। दिलचस्प बात ये है कि पहले सीन में भी सबसे पहले उनकी आँखें ही दिखती हैं और आखरी सीन में भी कैमरा उनकी निगाहों पर टिका रहता है, मगर दोनों बार आप कुछ अलग महसूस करेंगे।

मनोज बाजपाई परिपक्व उम्र के सरदार के रोल के लिए बेहतरीन चुनाव साबित हुए हैं। वो जब स्क्रीन पर होते हैं, घर के मुखिया जैसा महसूस होता है। इन सबके बीच सुशांत सिंह राजपूत जो ‘लाखन’ के किरदार में हैं, उन्होंने अलग ही हुनर दिखाया। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि इस फ़िल्म से उन्होंने ख़ुद को स्थापित कर लिया है। फ़िल्म देखने के बाद आप एक बार तो ज़रूर सोचेंगे, क्या ये वही लड़का है जो हाथ में बल्ला थामे इंडियन क्रिकेट टीम की जर्सी पहने खड़ा था।

 

वहीं फ़िल्म की नायिका भूमि पेंडेकर ने ‘इंदुमती’ को आत्मसार कर लिया। फ़िल्म में उनका एक डायलॉग है, ‘डकैत भी अच्छे हो सकते हैं।’ ये उन जैसे अभिनेताओं पर बिल्कुल सटीक बैठता है, कि आम शक्लो सूरत का अदाकार भी बेहतरीन हो सकता है, बस निर्देशक को काम लेना आना चाहिए। फ़िल्म में वो अकेली मुख्य महिला किरदार हैं और उन्होंने उस ज़िम्मेदारी को बड़ी सहजता से निभाया।
दूसरी तरफ अपने कॉमिक किरदारों के लिए मशहूर रणवीर शौरी को डाकू के इस रूप में देखना एक नया अनुभव देता है। फ़िल्म की सपोर्टिंग कास्ट इस फ़िल्म की धरोहर है। छोटे-छोटे किरदार, छोटी-छोटी कहानियों के जैसे लगते हैं। हर कहानी के बिना, उपन्यास अधूरा हो जैसे।

फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर विशाल भारद्वाज ने दिया है, और ग़ज़ब दिया है। गानों के नाम पर सिर्फ दो बार रेखा भारद्वाज और सुखविंदर सिंह सुनाई देते हैं, मगर किसी चीज़ की कमी नहीं लगती।
हाँ इस फ़िल्म के लिए इतना ज़रूर कह सकते हैं कि कुछ फिल्में क्लासेज़ के लिए बनती हैं कुछ मासेज़ के लिए। मैं इसे 3.5 स्टार्स दुंगी।
अंत में बस इतना ही कि हम सब अपने किरदार, अपनी ज़ात याद रखते हैं, क्या हो अगर कुछ ग़लत करने से पहले हम ये ध्यान कर लें कि हम इंसान हैं सबसे पहले, और मरने पर भी बस वही रह जाएंगे।

(फिल्म रिव्यू लिखा है महविश रज़वी ने….फिलहाल वे न्यूज18 में सब एडिटर हैं.)

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