तुम ठाकुर, मैं पंडित, ये लाला और वो चमार…. फिर ‘महाब्राह्मण’ कौन?

किताब- महाब्राह्मण (उपन्यास)
लेखक- त्रिलोकनाथ पांडेय
समीक्षक- गोविंदा प्रजापति

‘तुम ठाकुर, मैं पंडित, ये लाला और वो चमार!’ भारतीय समाज की संरचना में ‘जाति’ किसी बड़े कंकड़ जैसा है. स्वादिष्ट बिरयानी की मौज उड़ाते हुए जब यह कंकड़ अचानक दांतों के बीच में पड़ता है, तब भयानक दर्द के साथ मुंह से निकलता है- ‘अरे ये क्या था?’

कंकड़ की चोट से उठने वाला दर्द उन लोगों को महसूस हुआ जो इस व्यवस्था के कारण शोषण का शिकार हुए और उन्हें लगता है कि उनके हिस्से में सिर्फ कंकड़-पत्थर ही परोसा गया. बाकी लोगों के लिए बिरयानी की मौज तो सदियों से बरकरार ही है. हालांकि, जाति व्यवस्था का ये क्रम आगे चलकर उपजातियों में बंट जाता है और तब हजारी प्रसाद द्विवेदी की एक लाइन याद आती है. वो कहते हैं कि, ‘हिन्दू समाज में नीची से नीची समझे जाने वाली जाति भी अपने से नीची एक और जाति ढूंढ लेती है.’

हाल ही में मैंने त्रिलोकनाथ पांडे जी का लिखा हुआ एक उपन्यास पढ़ा, जिसका शीर्षक है ‘महाब्राह्मण’. इस किताब को पढ़ते हुए गुस्ताखी के साथ मुझे महसूस हुआ कि द्विवेदी जी की इस लाइन को रिवर्स ले जाने की भी जरूरत है. जाति व्यवस्था के क्रम में ऐसी धारणा है कि सभी ब्राह्मण सबसे ऊपर ही होते हैं और उनके हिस्से में सिर्फ स्वादिष्ट बिरयानी ही है जिसका जिक्र अभी हमने किया था. इसी ब्राह्मण समाज में एक उपजाति है जिसे नाम दिया गया है ‘महाब्राह्मण’. कई जगहों पर इन्हें कंटहा, महाबाभन और आचारज भी कहा जाता है.

इस शब्द को सुनने के बाद कई लोगों के मन में सवाल होगा कि ‘महाब्राह्मण’ कौन होते हैं? क्या काम करते हैं? कहां रहते हैं? और इनका जीवन कैसा होता है? त्रिलोकनाथ पांडे जी का उपन्यास अकेले आपके सभी सवालों का जवाब देने में सक्षम है. क्या है इस किताब में? कहते हैं कि जाति भारतीय समाज का कड़वा सच है लेकिन इस उपन्यास को पढ़ने के बाद लगा कि उपजाति इस कड़वेपन से भी ज्यादा कसैला है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश की जमीन पर गढ़ी गई ‘महाब्राह्मण’ की कहानी त्रिभुवन नारायण मिश्रा के इर्द-गिर्द घूमती है जिसकी उपजाति भी यही शीर्षक यानी महाब्राह्मण है और उसके जीवन का अभिशाप भी यही है. महाब्राह्मण शब्द सुनते ही त्रिभुवन को गालियों की संज्ञा से नवाज दिया जाता है. उसकी परछाई भी किसी के लिए अछूत हो जाती है और उसका छुआ हुआ मानो किसी जहर में तब्दील हो जाता है जिसे फेंक कर गंगाजल छिड़कने की नौबत आ जाती है. बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज त्रिभुवन के जीवन ऐसे कई पल आते हैं, जिसे महसूस करके पाठकों का गला भर आएगा.

गरीबी में पालने में पैदा हुआ त्रिभुवन कड़ी मेहनत के बल पर बीएचयू पहुंचता है लेकिन विश्वविद्यालय का टॉपर होकर भी उसे एक प्रोफेसर के आतंक से पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ती है. इसके बाद दुखों का पहाड़ उठाते हुए इलाहाबाद की यात्रा होती है. जहां दिन-रात एक करने के बाद त्रिभुवन बनता है IPS त्रिभुवन नारायण मिश्रा! लेकिन क्या गरीबी और लाचारी का दंश झेलते हुए यूपीएससी की परीक्षा पास करना ही जीत की असली परिभाषा है या इससे बड़ा भी कोई दुख है? उपन्यास पढ़कर आप समझेंगे कि ऊंची पदवी पर बैठे शख्स के दर्द भी बड़े होते हैं. लेखक की मेहनत जाया न हो लिहाजा हम स्पॉयलर नहीं देंगे. आपको सभी सवालों का जवाब जानने के लिए ‘महाब्राह्मण’ पढ़ना होगा.

क्या है उपन्यास की खास बात?
‘महाब्राह्मण’ में भारतीय समाज का वो कड़वा सच निकलकर आता है जिससे अब तक हम अनजान हैं या अनजान बनने का नाटक करते हैं! मैंने पहली बार ऐसी कोई किताब पढ़ी है जो ब्राह्मण समाज के उस वर्ग पर बात करती है जिनकी स्थिति बेहद दयनीय है. जिनके पास न पैसा है, न ही सम्मान है और न ही ज्ञान है. हमारा समाज गुरुओं को भगवान का दर्जा देता है लेकिन यह उपन्यास बताता है कि कैसे विश्वविद्यालय में कोई छात्र किसी विशेष जाति की वजह से गुरु का प्रिय हो जाता है या कैसे कोई लड़का घृणा का भागीदार बन जाता है?

सामाजिक ढांचे की कमियां कैसे राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती हैं. यह उपन्यास बखूबी बताता है. अंग्रेजी का ‘विलेज’ भारतीय गांवों से कैसे अलग है. इन गांवों के बसने की संरचना क्या होती है? यह त्रिलोक जी के उपन्यास से समझा जा सकता है. यहां आपकी मुलाकात कई तरह के किरदारों से होगी- एक जो दुख देते हैं, दूसरे जो दर्द सहते हैं और तीसरे जो उम्मीद की किरण बनकर आते हैं. त्रिभुवन इन्हीं सबसे घिरा रहता है और कहानी आपको एक रोमांचक और मार्मिक सफर पर ले जाती है. इतना ही नहीं यह आपकी समझ में भी इजाफा करने का काम करती है.

कैसी है भाषा शैली?
त्रिलोकनाथ पांडे जी की भाषा आम बोलचाल की है. लेखक को एक प्रवाह के साथ कहानी कहने में महारत हासिल है. शब्दों के विशाल भंडार के साथ उनके पास अपनी हर एक बात का तर्क मौजूद है जिसे वो पूरी तरह से जस्टिफाई भी करते हैं. कहानी के रोमांच का ग्राफ कई बार ऊपर-नीचे हो जाता है लेकिन विषय का चुनाव आपको एक बार में उपन्यास पढ़ने को मजबूर करता है. कई बार कहानी हाथ से छूटती है और लगता है कि अंत थोड़ा और कसा हुआ किया जा सकता था लेकिन इन सबके बावजूद भी ‘महाब्राह्मण’ पैसा वसूल परफॉर्मेंस देते हुए एक बेहतरीन उपन्यास साबित होती है.


(गोविंदा प्रजापति)