आखिर मौत की सजा देने के बाद क्यों निब तोड़ते हैं जज?

पुरानी फिल्मों में एक सीन बड़ा कॉमन है. अदालत में जज साहब एक गद्दी पर बैठे रहते हैं. आस पास अर्दली खड़े रहते हैं, दो सामने कटघरें होते हैं, एक आदमी दाएं वाले में, दूसरा बाएं वाले में. जज साहब कहते हैं कि मुजरिम फलाने को ताजिराते हिंद की दफा 302 के तहत मौत की सजा मुकर्रर करती है. फिर जज सहब कलम की निब तोड़ देते हैं.

ये सीन बॉलीवुड के हर दशक में कॉमन रहा है. 2000 तक तो पक्का वाला. सवाल आया होगा मन में आखिर ऐसा जज क्यों करते हैं, और ये ताजिराते हिंद क्या बला है?SS

IPC के हिसाब से चलता है कानून

भइया सिंपल बात है कि दूसरे वाले का जवाब पहले देना आसान है. ताजिराते हिंद का मतलब भारतीय दंड सहिंता होता है. अंग्रेजी में इसे कहते हैं इंडियन पीनल कोड(IPC).  अब पहले सवाल पर आते हैं कि आखिर क्यों कलम की निब तोड़ते हैं?

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इसका जवाब न मैं दे सकता हूं, न भारतीय दंड सहिंता(IPC), न दंड प्रक्रिया संहिता(CrPc) में और न ही किसी भी क्रिमिनल मैन्युअल में. जज के रूल बुक में भी नहीं.  तो फिर भइया जज को क्या पड़ी होती है कि वो पेन तोड़ दे? आइए जानते हैं.

अलग-अलग तरीके से बनते हैं कानून

दरअसल कानून कई तरह से बनते हैं. लोकतांत्रिक देश में संसद से कानून पारित होते हैं. कानून बनाना, उनमें संशोधन करना, हटाना, ये सब अधिकार संसद के हैं. एक तय प्रक्रिया के तहत कानून बनते हैं, जिन्हें कोडिफाइड करके किसी एक्ट का नाम दे देते हैं. जैसे IPC, CrPc, Evidence act, Contract act और CPC. 

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हालांकि कुछ एक्ट तो संसद बनने से पहले वाले भी हैं, जिन्हें संशोधित किया जाता रहा है. 

दूसरा तरीका होता है कि कोर्ट किसी मामले पर अपना फैसला दे. वो फैसला समता और अच्छे उद्देश्य से दिया गया हो. जैसे IPC की धारा 377 को कोर्ट ने हटाते हुए कहा था कि समलैंगिक होना अपराध नहीं है. इस मामले में संसद से कोई कानून नहीं बना है लेकिन अब समलैंगिकता अपराध नहीं है.

कई काम परंपराओं के हिसाब से होते हैं

अब बात उस ट्रेडीशन की जिसके तहत जज निब तोड़ते हैं. दरअसल पंरपराओं का हर जगह बड़ा महत्व होता है. अगर वो समता और सही उद्देश्य वाले हैं, कितनी शताब्दियों से वैसा होता आया है, कोई टाइम पीरियड ज्ञात नहीं है, जो मानवाधिकारों का हनन नहीं कर रहे हैं, वे भी धीरे-धीरे कानून बन जाते हैं. हिंदु लॉ और मुस्लिम वाला कॉन्सेप्ट जो आया है, वह यही है. हालांकि अब हिंदू लॉ कानून है, और मुस्लिम लॉ धीरे-धीरे ही सही कोडिफाइड हो रहा है. लेकिन भाई साहब, कुछ प्रथाएं ऐसी भी होती हैं जो कानून तो नहीं होतीं, लेकिन उनका पालन किया जाता है.

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सत्ता का एक चरित्र होता है, जब किसी देश में कोई सत्ता आती है तो अपनी परंपराएं भी उठा लाती हैं. मुए अंग्रेजों ने जब भारत में अपना राज कायम किया, अदालतें स्थापित कीं, तो जज अंग्रेज ही रहे. उनके यहां परंपरा रही कि जब किसी को फांसी की सजा दी जाए तो निब तोड़ दी जाए. इसे प्रोटोकॉल समझिये. लिखित नहीं है वजह लेकिन लोग करते आए हैं. कारण कई हो सकते हैं.

गुस्से या भावुकता में तोड़ा गया पहला पेन!

अब किसी की जान जब सरकार लेती है तो विधिक प्रक्रिया के तहत ही लेती है. कॉन्ट्रैक्ट किलर तो है नहीं सरकार.  जिस किसी पहले जज ने इसी शुरुआत की होगी उसने गुस्से से, भावुकता से, या अफसोस से निब तोड़ दी गई होगी, कि यार ये क्या कर दिया मैंने? किसी की जान लेने का जरिया बन रहा हूं मैं. बस तभी से नींव पड़ी. अब डेट मत पूछना कि कब शुरुआत हुई. शायद तब से जबसे जज लिखकर सजाएं देनें लगें तब से.

हर जगह किस्से बहुत हैं, लेकिन असली कानून का हवाला किसी के पास नहीं है. दरअसल इसे कस्टम ही समझिए. परंपरा जी. भारत में वैसे IPC के मुताबिक जघन्यतम मामलों में ही फांसी की सजा दी जाती है. किसी दुर्दांत अपराध के लिए. सामान्य तौर पर किसी को फांसी नहीं दी जाती. तो कलम भी आजाद भारत में ज्यादा नहीं टूटी होगी.