फांसी की सजा सुबह ही क्यों दी जाती है?

कभी मन में ख्याल आया है कि मौत की सजा पाए लोगों को क्यों सुबह ही फांसी दी जाती है? आखिर मारना ही है तो आराम से रात में लटका दें. एक आदमी अपनी जिंदगी के आखिरी दिन सुबह से शाम तक का वक्त तो देख ले. लेकिन बड़े सवेरे 5 बजे लटकाने से क्या फायदा मिलता है जेल प्रशासन को? 

दरअसल आजाद हिंदुस्तान में अब तक 61 बार लोगों को फांसी दी जा चुकी है. आखिरी बार 20 मार्च को निर्भया के गुनाहगारों को फांसी के फंदे पर लटकाया गया था. नाथू राम गोडसे से लेकर धनंजय चटर्जी, अफजल गुरु और याकूब मेनन, तक सुबह की पहली किरण के साथ ही फांसी पर लटका दिए गए. और कोई काम सरकारी आदमी टाइम से नहीं करता लेकिन जेल प्रशासन और जल्लाद जिस दिन फांसी की सजा मुकर्रर है, उस दिन सामने वाले बंदें को फांसी पर लटकाना नहीं भूलते.

इसे भी पढ़ें- आखिर मौत की सजा देने के बाद क्यों निब तोड़ते हैं जज?

अंग्रेजों की है करतूत

आइये वजह जानते हैं. दरअसल अंग्रेजों के जमाने से ही फांसी पर सुबह ही लटकाते थे. लेकिन अंग्रेज घाघ थे, उन्हें अपनी परंपराएं तोड़ने में गुरेज कब था. कहा जाता है कि भगत सिंह को शाम में फांसी दी गई थी. ऐसे कई मामले उस जमाने के हैं. यह ऐसी प्रथा है, जिसे दुनियाभर में अपनाया जाता है. जहां कहीं भी फांसी दी जाती है, वहां सुबह ही लटका देते हैं. अपने देश में जो जेल मैन्युअल है, वहां भी फांसी सुबह देने का रूल सेट है. 

दिल्ली जेल मैन्युअल के पैराग्राफ 872 का कहना है कि किसी को भी फांसी के फंदे पर सुबह तड़के ही लटकाना चाहिए. दिन के उजाले, या सूरज की किरणों से पहले ही सजायाफ्ता शख्स को फांसी के फंदे पर लटका दिया जाए. हां एक खास बात और, किसी भी शख्स को उस दिन नहीं फांसी नहीं दी जानी चाहिए, जिस दिन कोई पब्लिक हॉलिडे हो. यानी छुट्टी वाले दिन किसी को फांसी नहीं जानी चाहिए.

कोई और नहीं देख सकता किसी की फांसी

फांसी की एक और शर्त यह है कि अगर किसी को फांसी दी जाए तो कोई साथी कैदी उस फांसी को न देखे. जिस दिन किसी को फांसी देनी होती है, उस दिन सभी कैदियों को लॉकअप में ही रखा जाता है. किसी को तब तक लॉकअप से बाहर नहीं आने दिया जाता है, जब तक कि फांसी की प्रक्रिया पूरी न हो जाए और लाश को परिवार के हवाले या मुर्दाघर न पहुंचा दिया जाए.

इसे भी पढ़ें- धरती के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर कितना मुश्किल है जीवन, समझिए

हालात अगर प्रतिकूल हों तो केंद्र और राज्य सरकारें इनमें बदलाव कर सकती हैं. दरअसल कानून की दुनिया में कुछ भी करने का एक लॉजिक होता है. कॉमन सेंस लगाएं तो एक बार सामने आती है कि अगर सुबह फांसी दे दी जाए तो सभी कागजी प्रोसीडिंग्स, मेडिकल टेस्ट और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट दोपहर तक पूरी हो जाती हैं, जिससे मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार दिन में ही पूरा हो जाए. दूसरी बात ये कि जिस दिन फांसी होती है उस दिन शख्स को सुबह 3 बजे ही उठा दिया जाता है. अपने काम निपटाकर शख्स को इतना वक्त मिल जाता है कि वह अपने आराध्य को याद कर ले, सोच ले, और मान ले कि ये आखिरी दिन है. व्यवहारिक तौर पर मौत की डेट जानकर किसी का क्या ही मन लगेगा. अन्य सभी बातें बेमानी हैं. फांसी का वक्त नजदीक आते ही आदमी इस स्थिति में नहीं रहता कि वह कुछ और सोच सके. 

लोकल डिब्बा के फेसबुक पेज को लाइक करें.

तीसरा कारण यह भी है कि फांसी बड़े स्तर पर खबर बनती है, जिसका असर समाज पर भी पड़ता है. कोई दिन में हंगामा शुरू करे इससे पहले ही फांसी पूरी कराकर प्रशासन तमाम हंगामों से बच जाता है.

फांसी लगाने की प्रक्रिया क्या है, कैसे किसी को फांसी के फंदे से लटकाया जाता है, इसके बारे में जानने के लिए इंतजार करें, हमारे अगले वीडियो करा, तब तक के लिए जय हिंद.