नोट की छपाई करके रातों-रात अमीर क्यों नहीं हो सकते हैं देश?

कागज के नोट पर ऐसा क्या लिखा होता है कि उसकी इतनी वैल्यू होती है? जिसके बैंक में, घर में जितना पैसा, वो उतना अमीर. लाख-दस लाख, बीस लाख करोड़ फिर अरब. हों चाहे जितने, अगर बाहर निकालेंगे तो रहेंगे कागज के टुकड़े ही, जो किसी प्रिटिंग मशीन से छापे गए होते हैं. ये कागज के नोट ही तय करते हैं कि कौन अमीर है, कौन गरीब है, किसे सड़क पर बिना छत के सोना है, किसे महलों में रहना है. किसे खा-खाकर मरना है, किसे बिन खाए मरना है. तो अगर नोट छापने से ही गरीबी दूर होती है तो क्यों दुनिया में हैती, इक्वेटोरियल गिनी, जिम्बाब्वे, कांगो, स्वीजीलैंड, इरित्रिया और मेडागास्कर जैसे देश अब तक दुनिया के सबसे गरीब देश बने रहते.

मनमाना पैसा क्यों नहीं छाप सकते?

पैसा छापते और अमीरी में अमेरिका को पीछे छोड़ देते. इन्हें छोड़िए बगल का पाकिस्तान पैसा छाप-छाप के भारत के सारे पड़ोसियों को खरीद लेता और भारत को रणनीतिक रूप से कमजोर कर देता. मतलब कम से कम अपने देश में जो पाकिस्तान के कंगाली वाले आर्टिकल छापे जाते हैं, वे तो बंद हो जाते. लेकिन नहीं, इंसान के पास खूब पैसे हो सकते हैं, वो रख सकता है, जिसे सरकार ने छापे हों, लेकिन सरकार खुद के लिए पैसे, एक लिमिट से ज्यादा छाप नहीं सकती. 

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ज्यादा नोट छापकर तबाह हो गए देश

अगर छापेगी तो हाल वेनेजुएला और जिम्बाब्वे जैसा होगा. जिम्बॉब्वे में 2008 तो वेनेजुएला में साल 2018 में हालात वहां इतने खराब हुए बुनियादी जरूरतों के लिए झोलेभर पैसे लोग जाते, और जरूरत की चीजें भी नहीं ला पाते. ऐसा होता है, मुद्रास्फीति इसी टर्म को कहते हैं. यहां की सरकारों ने अपनी अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए पैसे तो छाप लिए बहुत ज्यादा, लेकिन महंगाई ऐसी बढ़ी कि नोटों की गड्डियों लेकर जाते थे लोग, मिलता था एक पैकेट ब्रेड. ऐसा होता है, मुद्रीस्फीति की स्थिति आने के बाद चीजों के दाम असामान्य तरीके से महंगे हो जाते हैं. मतलब ये समझो कि पैसे की ही औकात नहीं रह जाती.

कैसे तय होती है देशों की औकात?

मतलब कोई देश अपनी औकात के हिसाब से ही पैसे छाप सकता है. तो फिर नोट छापने की प्रक्रिया क्या होती है? दरअसल, पैसे छपाने का सिंपल सा फंडा है कि उस देश की सरकार, सेंट्रल बैंक, राजकोषीय घाटा, सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) और उस देश की ग्रोथ रेट के हिसाब से उस देश का सेंट्रल बैंक, जैसे अपने यहां आरबीआई है, तय करेगा कि कितने नोट छापने हैं. आमतौर पर रिजर्व बैंक, अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2 से 3 फीसदी नोट ही छापता है. यह प्रतिशत सामान्यत: किसी देश की अर्थव्यवस्था पर ही निर्भर करता है.

ज्यादा नोट छाप लेने से करेंसी का वैल्यू कम होने लगता है. हालात ऐसे हो जाते हैं कि अंतराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां उस देश की रेटिंग ही घटा देती हैं, ऐसी स्थिति में पैसे तो छोड़िए उस देश को कर्ज तक नहीं देने को कोई तैयार होता है.

नोट छापना हो तो क्या करना होगा?

तो भइया मतलब साफ है कि अगर देश के पैसे का वैल्यू बढ़ाना है तो अपनी औकात के हिसाब से ही नोट छापने में भलाई है. नोट छापने का मन हो, तो पहले सामानों का प्रोडक्शन अच्छा करो, अपने देश से अच्छे उत्पाद बेचो, खेती बढ़िया करो, मशीन, जहाज, हेलीकॉप्टर, अनाज भरपूर पैदा करो. खुद आत्मनिर्भर बनो और दुनिया को अपने ऊपर चीन की तरह निर्भर कर लो. हां वैक्सीन भी स्वदेशी बनाओ, तब जाकर जीडीपी सुधरेगी. अगर आपका वेल्थ, प्रोडक्शन और करेंसी रनिंग अमेरिका की तरह हो जाए तो आपका भी रुपैया डॉलर के बराबर हो जाए.  सो भइया लॉजिक तो इतना ही है.

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