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देश का ऐसा कोना जहां न जवान सुरक्षित हैं न पत्रकार

शनिवार को भारत में ईद है. कश्मीर में भी क्योंकि कश्मीर देश से बाहर नहीं है. आतंकी भी इस पाक महीने में रोजा रखते हैं और उन्हें भी ईद मनानी होती है. लेकिन उन्हें ईद खून से मनाने का मन करता है. शायद उनकी सेवंइयों में दूध की जगह खून से बनती हों. आतंकियों के लिए किसी की हत्या संस्कार जितनी महत्वपूर्ण है. ऐसा लगता है कि इनकी बचपन से दिली ख्वाहिश मौत का खूनी खेल खेलना ही रहा हो. कश्मीर में बृहस्पतिवारो को दो हत्याएं हुईं हैं. जिनके बारे में जानने के बाद एक आम भारतीय के लिए कश्मीरी अतिवादियों की हिमायत करने वाले जरूर कुछ होंगे. पहली घटना है जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में वरिष्ठ पत्रकार और राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी की गोली मार हत्या कर दी गई है. 48 वर्षीय बुखारी श्रीनगर में लाल चौक सिटी सेंटर स्थित अपने ऑफिस प्रेस इनक्लेव से निकलकर एक इफ़्तार पार्टी में जा रहे थी तभी अनजान हमलावर उन्हें गोली मारकर चले गए. उनकी मौत हो गई.

एक पत्रकार के बारे में कहा जाता है कि वह अत्याचार के खिलाफ लिखता है. उम्र बिता देता है पीड़ितों की तरफदारी करते-करते लेकिन कश्मीर में किसी के लिए किसी को कुछ नहीं मिलता. गोली जरूर मिल जाती है. शुजात बुखारी राइजिंग कश्मीर के संपादक बनने से पहले 1997 से 2012 तक कश्मीर में ‘द हिन्दू’ अख़बार के संवाददाता थे. यह पहली बार नहीं था जब उनपर आतंकी हमला हुआ. बुखारी पर 2000 में भी आतंकी हमला हुआ था जिसके बाद उन्हें पुलिस सुरक्षा भी दी गई थी. वह कश्मीर में शांति बहाली के पक्षधर थे और इसलिए ही अक्सर आतंकी निशाने पर रहते थे. कश्मीर में जो भी शांति की बात करेगा टपका दिया जाएगा.

दूसरी घटना है ईद पर घर जा रहे एक जवान की हत्या. ईद की छुट्टी पर घर जा रहे कश्मीर के पुलवामा से अगवा किए गया सेना का जवान औरंगजेब भी आतंकियों की भेंट चढ़ गया. यह तब हुआ है जब गृह मंत्रालय ने आर्मी को ईद से पहले आर्मी ऑपरेशन ने करने का आदेश दिया है. औरंगजेब का शव पुलवामा के गुसु इलाके से बरामद किया गया. आतंकियों पर इन घटनाओं के बाद सच कहिए किसे तरस आएगा.

आतंकियों को अगर स्थानीय नागरिकों का समर्थन न मिले तो शायद वहां इन घटनाओं पर लगाम लग सके. लेकिन स्थानीय नागरिक भी ऐसा लगता है कि ज्यादातर आतंकियों के समर्थक हैं. सेना उनके लिए कुछ अच्छा भी करे तो उस पर पत्थरबाजी करने से बहके हुए लोग बाज नहीं आते. सेना देवता नहीं है. अगर कोई किसी पर हमला करेगा तो जवाब में गोली ही मिलेगी. लेकिन ऐसा कई बार हुआ है जब सेना ने कुछ ज्यादा ही सहिष्णु होने का परिचय दिया है. पत्थर खाए हैं लेकिन एक्शन नहीं लिया है.

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सेना कोई एक्शन ले भी तो कैसे. एक से निपटा जा सकता है पूरे इलाके से नहीं. पत्थर मारने वाले देश के नागरिक हैं इस बात को सेना भी जानती है. देश के अन्य हिस्सों में कोई प्रदर्शन उग्र हो तो फायरिंग का ऑर्डर मिल जाता है. मामला चाहे तूतीकोरिन का हो या मंदसौर का. एक से बढ़कर एक उदाहरण हैं जब पुलिस ने भीड़ पर फायरिंग की है. कश्मीर में इससे अधिक हिंसक झड़पें रोज होती हैं लेकिन सेना रोज लाशें नहीं गिराती. हां जवान जरूर मरते रहते हैं पड़ोसी की मेहरबानी से. जिनके बहकावे में आकर कश्मीर को जहन्नुम बनाया जा रहा है.

कश्मीर को बांटने वाले बहुत सफल हैं. उनके मंसूबे कामयाब हो रहे हैं. कश्मीर से देश के अन्य प्रदेशों में बैठे लोगों का भरोसा उठ रहा है. आम कश्मीरी जिसे शायद अमन की तलाश  है वह भी बड़े हिस्से को आतंकी लगने लगा है. पत्थरबाज आतंकपरस्ती साबित करने की पूरी कोशिश में हैं. सेना की छवि दुश्मन जैसी हो जा रही है. आम नागरिकों पर शक की सूइयां इतनी गहरा गईं हैं कि उन्हें आम भारतीय मान पाना सेना और सुरक्षाबलों के लिए भी बेहद मुश्किल हैं. ऐसे में कश्मीर पर विश्वास करे कौन. राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों कश्मीर में शांति बहाल करने में बुरी तरह असफल रहीं हैं. आतंक की घटनाएं नहीं थमने वालीं. उग्रवाद पर काबू पाने की सारी कोशिश धरी-धराई रह जाने वाली है.

आम कश्मीरी में भारत के प्रति प्यार जगाने के लिए किसी बड़े मुहिम की जरूरत हैं. उन्हें शक से न देखे जाने की जरूरत है.इसके लिए पहल दोनों पक्षों की ओर से किए जाने की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं होता है तो कश्मीर धीरे-धीरे देश के हाथों से सरकता जाएगा जिसे सीमाओं में बांध पाना बेहद मुश्किल साबित होने वाला है.

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