लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। संविधान ने इन्हें इस तरह से गढ़ा है कि वे एक दूसरे की आलोचना कर सकते हैं और आलोचना करते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। सभी के सवालों का महत्व है लेकिन जब सवाल न्यायपालिका उठाती है तो उसका महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है लेकिन जब वाजिब मुद्दा होने के बावजूद अगर न्यायपालिका सवाल ना उठाए तो तब क्या किया जाए?
जस्टिस बृजगोपाल लोया की संदिग्ध मौत कुछ ऐसी ही है, जिसकी जाँच होनी चाहिए लेकिन जांच करे तो कौन करे? जब न्यायालय के अंदर ही इस मुद्दे पर विरोधाभास हो तो न्याय की उम्मीद तो बेमानी हो जाती है। फिर आप न्याय की उम्मीद किससे करेंगे और क्यों करेंगे। देश में जिला स्तर के न्यायाधीशों के पास बत्ती और हूटर वाली गाड़ी होती है, साथ में दो सहायक हर पल उनके साथ होते हैं तो यह कैसे मान लिया जाए कि जस्टिस लोया के साथ कोई नहीं होगा? देश के इतने बड़े हाई प्रोफाइल मुद्दे की वह जांच कर रहे थे, क्या ये पचने वाली बात है कि उनके साथ कोई नहीं था और उस वक्त वह अकेले थे?
अगर उनके साथ कोई नहीं रहा होगा तो क्यों नहीं रहा होगा? यह भी एक बड़ा सवाल है। वे दो जज जो उनको शादी समारोह में ले गए वे कहां है? उनसे पूछताछ क्यों नहीं हो रही है? मुंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश मोहित शाह, जिन्होंने लोया को एकतरफा फैसला सुनाने के लिए 100 करोड़ रुपये की पेशकश की वह अब कहां है? उनसे पूछताछ क्यों नहीं हो रही है? ऐम्बुलेंस में उनके साथ वह ड्राइवर कौन था, वह संघ का आदमी कहां है?
सवाल इतने हैं कि हमारे न्याय के रखवालों को इसपर कार्रवाई और फिर से जांच के आदेश देने के लिए मजबूर कर दे, मगर इसके बावजूद सरकार भी चुप, न्यायालय भी चुप, देश का आम आदमी भी चुप है? किसी भी देश के लोकतंत्र की मजबूती का आईना उस देश की न्यायपालिका होती है लेकिन जब न्यायाधीशों का चयन ही सरकारी एजेंडे, राजनीतिक प्रक्रिया और सरकार के करीबी होने से होने लगे तो ये समझ लेना चाहिए कि उस देश का का लोकतंत्र क्षीण हो गया है और सत्तावादी, स्वेक्षाचारी और सर्वाधिकारियों का शासन आ गया है और अब उन्हीं का बनाया लोकतंत्र चलेगा।
जस्टिस लोया की रहस्मयी मौत बहुत खलती है मगर सत्ताधीशों और न्यायप्रिय लोगों की चुप्पी चुभ जाती है। लेखिका राणा अयूब को अब इस मामले में दखल देकर अपने हिसाब से पहल करनी चाहिए। उनके साथ पूरा देश खड़ा रहेगा। उनके पास तमाम वो सबूत हैं, जैसा कि उन्होंने अपनी किताब ‘गुजरात फाइल्स में जिक्र किया है, जिसके इस्तेमाल से अमित शाह एंड कंपनी को घेरा जा सकता है। ऊपर से “कारवां” की ये रिपोर्ट सर्वाधिकारियो की नींद उड़ाने के लिए काफी है। गौरतलब है कि कारवां मैगजीन ने राना अयूब को उनकी किताब लिखने में मदद भी की थी, लिहाजा दोनों को साथ ये मामला देखने मे आसानी भी होगी।
सरकार, न्यायालय, कानूनविद पर भरोसा करने लायक नहीं है, अधिकतर आजकल कुर्सी के गुलाम होने लगे हैं। अगर इस देश को इन अप्रत्यक्ष तानाशाही से बचना है तो पहल हमें ही करना पड़ेगा और लौ भी हमें ही जगाना होगा। कोर्ट की चुप्पी समाज को आइना दिखा रही है कि समाज के मुंह पर भी अब फफोले आने लगे हैं और समय रहते ना चेता गया तो ये फफोले कब बजबजा जाएंगे यह कोई नहीं जानता और उस वक्त हम डॉक्टर-डॉक्टर करते इधर-उधर फिरने लगेंगे, मगर दाग वैसे का वैसे ही रह जाएगा और फिर वह आईना दिखाएगा की जैसा पेड़ हमने बोया था, वैसा ही फल हमने तोड़ा है।
यह लेख राजीव कुमार ने लिखा है। राजीव लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्र हैं।