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राज्यपाल की कृपा कितने दिनों तक शाह को मात मिलने से रोक सकती है?

Amit Shah (C), the newly appointed president of India's ruling Bharatiya Janata Party (BJP) is congratulated by outgoing BJP president Rajnath Singh (R) as Indian Prime Minister Narendra Modi (2nd R) watches after a news conference in New Delhi July 9, 2014.Photo by Pankaj Nangia

कर्नाटक इस बार आशंकाओं की बड़ेर पर खड़ा हो तमाशा देख रहा है कि क्या हो रहा है प्रदेश में. तीन पार्टियां, नाटक तेरह. कौन है गठबंधन की फिराक में तो किसे मिलेगा ठेंगा. सब कुछ अनिश्चित है. अब सरकार बनाने का सारा दारोमदार राज्यपाल वजूभाई वाला के जिम्मे है. अगर भाजपा की तरफदारी करें तो उन्हें विपक्ष भाजपा का दलाल कहेगा और अगर न करें तो भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के प्रति समर्पण का बंटाधार होगा. दोनों तरफ से खरबूज की तरह चाकू पर बैठे हैं राज्यपाल.

ऐसी स्थिति में अगर वह अपनी शक्तियों का सही इस्तेमाल करना चाह रहे हों तो उनकी स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ जैसी हुई होगी. क्या करें न करें यह कैसी मुश्किल हाय टाइप. इन्हीं अटकलों के बीच खबर आ रही है कि येदियुरप्पा कल सुबह 9:30 बजे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे और उन्होंने विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए राज्यपाल से एक हफ्ते का वक्त मांगा है. राज्यपाल के लिए किसी फैसले पर पहुंचना फिलहाल आसान तो नहीं है.

वजु भाई का इतिहास बताता है कि संघ से उनका रिश्ता पुराना है. पार्टी के लिए कुछ भी करने वाले कार्यकर्ता वजु भाई पार्टी हितों की अवहेलना करने से रहे. भाजपा को सरकार बनाने के लिए निमंत्रण देने का अधिकार भी उन्हें संविधान प्रदत्त है क्योंकि अभी भाजपा से बड़ी राजनीतिक पार्टी कर्नाटक में कोई है नहीं. अगर संविधान के हिसाब से चलें तो भी सरकार उन्हीं की बननी तय है. चलिए वुजु भाई के समर्पण का इतिहास जानने के लिए चलते हैं सन 2002 में. यह वही समय है जब नरेंद्र मोदी राजकोट से चुनाव लड़ने जा रहे थे और वजु भाई ने बिना किसी विरोध के अपनी सुरक्षित सीट राजकोट छोड़ दी थी. मोदी जी काफी भरोसेमंद रहे वजुभाई 2014 में कर्नाटक के राज्यपाल बनाए गए.

अब वजुभाई को अपना समर्पण दिखाने का दोबारा मौका मिला है. कांग्रेस और जेडी(एस) के पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त समर्थन है. भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन उसके पास बहुमत नहीं है. जेडी(एस) को कांग्रेस का समर्थन मिल चुका है, भाजपा कितना भी तिकड़म लगाए उसके पास फिलहाल अभी बहुमत नहीं है.अमित शाह कितना भी जादुई कारनामा क्यों न करें उनके पास अभी सरकार बनाने का कोई मौका नहीं है. कैसे सरकार बने.

जोड़ तोड़ की राजनीति की राहों में संकट
संविधान ने एंटी डिफेक्शन लॉ का प्रावधान रख बहुतों के अरमानों पर पानी फेर दिया है. अगर यही वाला सीन नहीं होता तो विधायकों को खरीदने में जरा भी वक्त नहीं लगता किसी भी राजनीतिक पार्टी को. दल बदल कानून आया राम गया राम के विरोध में आया. दरअसल लाभ और पद के लालच में जब किसी भी दल के चुने हुए प्रतिनिधि किसी और दल में चले जाते हैं तब उन पर दल बदल कानून लगू होता है और उनकी सदस्यता रद्द कर दी जाती है. सन् 1985 में संविधान में बदलाव कर ऐसा कानून लाया गया जिसके बाद से जोड़ तोड़ का आसान खेल थोड़ा मंहगा हो गया.
कर्नाटक में भाजपा के पास 104 सीटें है. कांग्रेस के पास 78 और जेडी(एस) के पास 38 सीटें हैं. दो निर्दलीय विधायक भी कांग्रेस के समर्थन में हैं. उनका होना भाजपा के लिए फायदेमंद भी नहीं है क्योंकि भाजपा जादुई आंकड़े से आठ सीट दूर है. भाजपा के लिए अभी इकट्ठे इतने विधायक मैनेज कर पाना बहुत मुश्किल है.

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दल बदल कानून न लागू हो इसके लिए एक तिहाई से अधिक सदस्यों का एक साथ किसी पार्टी में जाना अनिवार्य है. अभी किसी भी पार्टी के लिए कर्नाटक में यह संभव नहीं है कि किसी दल से इतनी बड़ी मात्रा में विधायकों को खींच लिया जाए. असली दिक्कत यहीं है. शाह को मात यही कानून देगा. अमित शाह यूं तो जहां जाते हैं जीत कर आते हैं लेकिन इस बार कुछ कह पाना बहुत मुश्किल है.  खैर कल किसने देखा है, क्या कांड हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता. जो दो सीटों पर सरकार बना सकते हैं उनके पास 104 सीटें हैं.

 

 

 

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