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दंगाइयो की नज़रों से कब तक बचे रहेंगे गांव?

#!dcdisplayfp\b0\i0\fs10Date~26.07.1999; Slug=Member_Showcase; Source=OBSERVER-DISPATCH; Time~14:01; Type=Picture;ÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐfs16\bNo Titlefs12\b0<>A man stands in front of a bonfire at the 1999 Woodstock Festival, Sunday, July 25, 1999, in Rome, N.Y. After almost 72 hours of peace and love, Woodstock '99 ended in blazing chaos Sunday night as hundreds of concertgoers turned into vandals, starting fires and looting. (AP Photo/Observer-Dispatch, Michael P. Doherty)fp\b0\i0\fs10ÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐÐfp\i0\b\fs16Digital Collections/IPTCfp\b0\i0\fs10CREDIT~AP; Category~A; Municipality=Rome; Photographer=Michael_P._Doherty; State~New_York; TransRef~NYUTI101;

कॉलेज के आख़िरी दिनों में हमारे रहने का ठिकाना बना मेरठ के गंगानगर का एम ब्लॉक। जिस मकान में हम रहते थे उसी के बग़ल में एक आंटी जी रहती थीं।
आंटी जी लीडर थीं। कोई न कोई महिला फ़रियादी उनके घर के बाहर अरदास लगाने पहुंची रहती। सप्ताह के किसी एक दिन आंटी जी के घर पर मोहल्ले भर की महिलाओं का जमवाड़ा लगता था। शुरूआती दिनों में लगा कि हर हफ़्ते आंटी जी का कुनबा बढ़ रहा है तभी पड़ोसियों को इकट्ठा कर के आंटी जी सोहर गाती हैं लेकिन बाद में पता लगा कि आंटी जी पर माता जी सवार होती हैं।
 
आंटी जी वैसे तो बहुत सामान्य रहती थीं लेकिन जब देवी जी सवार होती थीं तो अंकल जी उन्हें महिषासुर नज़र आते थे। ग्लास-थाली, चौका-बेलन, जो भी आंटी जी के हाथ लगता, अंकल जी पर उसे चला देतीं। अंकल जी थे तो बहुत बड़े कांइया लेकिन लेकिन देवी मां के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा थी कि आंटी जी के हर प्रहार को दैवीय कृपा मानकर सह लेते थे।
 
आसपास की महिलाएं पूजा की थाली लेकर आंटी जी की आरती उतारने दौड़ी चली आती थीं। एक-दो-तीन-चार, मैया जी की जय-जयकार और अम्बे तू है जगदम्बे काली जैसे भजन सुनकर ही आंटी जी अपने विकराल रूप से सामान्य रूप में वापस आ पाती थीं।
 
आंटी जी से कोई ख़ास रिश्ता शुरूआती दिनों में नहीं बना लेकिन जैसे ही निखिल जी की एंट्री गंगानगर में हुई आंटी जी हम पर भी मेहरबान हो गईं। निखिल जी की हमसे दोस्ती, कॉलेज के आख़िरी महीनों में हुई। दिल्ली से रोज़ मेरठ पढ़ने आने वाले कॉलेज के इकलौते छात्र निखिल जी ही थे।
 
निखिल जी अद्धुत व्यक्तित्व के स्वामी हैं। सीधे, सच्चे और सरल। घनघोर गर्मी में भी निखिल जी फ़ुल शर्ट पहनते और पंखा बंद कर पढ़ाई करते। जब उनसे हम लोग पूछते फ़ैन क्यों ऑफ़ है तो निखिल जी मासूमियत से जवाब देते, ‘वो क्या है न कि पंखा शोर मचाता है तो पढ़ाई में डिस्टर्बेंस होती है, इसलिए मैं फ़ैन ऑफ़ करके रखता हूं।‘
 
उन्हें सतयुग में पैदा होना था लेकिन ख़राब टाइमिंग के चलते असमय कलियुग में अवतार लेना पड़ा। निखिल जी को लगा कि दिल्ली से रोज़ आने-जाने में पढ़ाई चौपट हो जा रही है तो रूम की तलाश में हमारे पास आ गए। हमने उन्हें आंटी जी के मकान में रूम दिला दिया। दिन भर निखिल जी कॉलेज में रहते थे इसलिए आंटी जी का विकराल रूप कभी देख नहीं पाए।
 
निखिल जी के रूम के बग़ल में ही आंटी जी का रूम था। एक दिन नवरात्रि में किसी दिन आंटी जी पर माता जी सवार हो गईं। जटाजूट खोल कर आंटी जी ने महाकाली का रूप धर लिया। अंकल जी पर हथियारों की बरसात करने लगीं। संयोग से निखिल जी अपने रूम में ही थे। बर्तनों का शोर सुनकर निखिल जी बाहर आए तो देखा कि अंकल जी हाथ जोड़ कर आंटी की स्तुति कर रहे हैं और आंटी जी उन्हें धुनके जा रही हैं। निखिल जी ने जीवन में कभी ऐसा दृश्य नहीं देखा था। बेचारे डर से सांस नहीं ले पा रहे थे। किसी तरह दरवाज़ा खोलकर बाहर भागे और जान बचाकर हमारे रूम की ओर सरपट दौड़े।
 
वीरू भइया उनसे पूछते रह गए क्या हुआ लेकिन बेचारे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। जब सामान्य हुए तो बताया कि आंटी जी को जाने क्या हो गया हो गया है वह अंकल जी पर टूट पड़ी हैं। अंकल जी उनकी आरती उतार रहे हैं।
 
वैसे तो निखिल जी को हम अपने रूम पर रोकने की लाख कोशिश करते तब भी नहीं रुकते लेकिन उस दिन के बाद से तीन-चार दिन तक निखिल जी अपने रूम में ही नहीं गए। उन्हें लगता कि फिर आंटी जी अपने विकराल रूप में आ जाएंगी। निखिल जी कई दिन तक कांपते रहे आंटी जी का रौद्र रूप देखने के बाद। डर की वजह से रात में उठ-उठ बैठ जाते बेचारे निखिल जी। वीरू भइया के लाख समझाने के बाद भी निखिल जी कई दिन तक अपने रूम में झांकने भी नहीं गए। जब आंटी जी घर में नहीं होती थीं तब घुसते थे और उनके आने से पहले ही रूम से निकल लेते थे।
 
निखिल जी ठहरे दिल्ली वाले। इस तरह के माहौल से बेचारे अपरिचित थे। हम ठहरे गांव वाले जहां रोज़ ही किसी न किसी पर माता जी सवार हो जाती थीं।
 
मेरे गांव में जो जितनी ही दूर से बदबू करे माता जी उसी पर सवार होती हैं। इसी चक्कर में मेरे गांव मे कई लीटर पानी बच जाता है। नवरात्रि के दिनों में घर-घर में देवी मां सवार हो जाती हैं। जिस पर भूत-प्रेत का साया हो उस पर भी। इन दिनों में बेचन सोखा की किस्मत चमक जाती है। माता जी को ख़ूब देसी मुर्गे का भोज चढ़ता है जिसे खाने का एकाधिकार बेचन सोखा के परिवार वालों को ही होता है। ख़ूब पूजा चढ़ाया जाता है। भूत-प्रेत, लगहर, जिन्नाद, मइलहिया, बंगलिया और न जाने कौन कौन बेचन सोखा के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। बेचन सोखा इन सबसे सीधा संवाद करते हैं। देवी मां को भी ऐसे डांटते हैं जैसे कोई अपने बच्चे को डांटता है।
 
गांव हमेशा से उत्सवधर्मी रहे हैं। नौ-दस दिन गांव का माहौल देखने ही लायक होता है। लाउडस्पीकर पर माता जी का भजन देवराज इंद्र के कानों के पर्दे भी फाड़ देता है। अगर किसी भौजी या काकी के हाथ में माइक आ जाए तो माहौल ही बदल जाता है। ऐसे ऐसे लोकगीत सुनने को मिलते हैं जो कहीं और सुनने को न मिलें।
 
शाम को पर्दा वाले वीडियो पर रामायण, महाभारत देखने के लिए उमड़ी अपार भीड़, मोदी की रैली से ज़रा भी कम नहीं होती। जिसे जो जगह मिली वो वहीं बैठ जाता है। जैसे ही पर्दे पर अरूण गोविल नज़र आते हैं माहौल भक्तिमय हो जाता है। सब हाथ जोड़कर भक्तिभाव से बैठ जाते हैं। ऐसा लगता है कि मेरा गांव अयोध्या हो गया है। भगवान राम सामने खड़े हैं।
एक-दो सीडी रामायण देखने के बाद मिथुन चक्रवर्ती या सनी देओल की फ़िल्म लग जाती है। प्यार-मोहब्बत वाला हीरो तो गांव में आज भी मेहरा ही कहा जाता है। मेहरा को हिंदी में स्त्रैण कहा जाता है। इससे आसान अर्थ मुझे नहीं पता। मिथुन की फ़िल्में मातम वाली होती हैं लेकिन बिना उनकी फ़िल्मों के, कहां मेरे गांव में कोई उत्सव मन पाता है।
 
नवरात्रि का दूसरा दिन है। दिल्ली में किसी पर्व का पता नहीं लगता। लोग समझदार हैं। उत्सवों से बहुत दूर हो चुके हैं। लोगों के पास ख़ुद के लिए वक़्त नहीं होता तो ढकोसलों की बात कौन करे।
 
लोग कहीं मिलते हैं तो बातचीत का विषय भी राजनीति के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता। मेरे धंधे में तो और नरक मचा रहता है। कौन किसका हाल पूछे, हाल तो बस राहुल और मोदी का लोग जानना चाहते हैं। उत्सव सबकी ज़िंदगी से ग़ायब है। राजनीति ने बहुत सधे हुए क़दमों से लोगों को बांट दिया है। लोग पार्टियों के यहां दिमाग़ गिरवी छोड़ आए हैं। अब लोग असहमत होने पर गला भी दबा सकते हैं। बंटवारे के कई स्तर हो गए हैं। धर्म-जाति और संप्रदाय सब आजकल प्रासंगिक हो गए हैं। ख़ैर यह सब तो आदिकाल से होता आ रहा है।
 
दशहरा और मुहर्रम एक साथ आ रहे हैं। दंगें भड़काने वाले पूरी कोशिश में होंगे कि शहर जले। जितना बड़ा दंगा होगा उतना ही बड़ा नेता तैयार होगा।
पूर्वांचल के गांव अब भी दंगों से बचे हुए हैं। शायद इंसानियत बची है लोगों में। दशहरे पर देवी मां की मूर्तियां बनवाने के लिए चंदा मुसलमान भी देते हैं। ताज़िए आज भी मुस्लिमों से कहीं ज़्यादा हिंदू बनवाते हैं।
 
अब डर लगता है, नफ़रत गांवों में भी न पसर जाए। लोग बुद्धिमान हो रहे हैं। डिजिटल इंडिया के क़दम गांवों में भी पड़ गए हैं। सोशल मीडिया की भी एंट्री हो चुकी है। फ़ेक ख़बरों का मायाजाल तेज़ी से फैल रहा है। कहीं गांव वाले भी शहरों की समझदार हो गए तो सुकून सपना हो जाएगा। डर लग रहा है क्योंकि मेरा देश बदल रहा है।
भटका हुआ आलेख पढ़ने के लिए शुक्रिया, लिखना कुछ और था लिख कुछ और गया। मिलते हैं…….
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