रात दरवाज़े पर दस्तक दे रही है
मुझे धोखा हो रहा है
कुत्तों के भौंकने की सदा है कि
सायरन को सर पे उठाए गली से
कोई एम्बुलेंस गुज़री है
तय नहीं कर पा रहा हूँ
दिल की नातवाँ धड़कनें
रह-रह के सीने से फिसलकर
ज़मीं पे गिर रहीं हैं
मैं घबरा रहा हूँ
क़ज़ा है, और क़ज़ा नहीं है
गुमाँ है, और गुमाँ नहीं है
आज ही तो मैंने क़दम उठाकर
पीछे खींच लिया था
अगले सुनसान मोड़ पर
नहीं है, ज़िंदगी
हाँ कुछ ऐसा ही अंदेशा था
रात अब दरवाज़े पर खड़ी है
रह-रह के सायरन की सदा आ रही है.
सलीम सरमद भोपाल में रहते हैं और बहुत चाव से बच्चों को विज्ञान पढ़ाते हैं. फितरत से आवारा बंजारा जैसे. सलीम जंगल में भी जाएं तो किताबें साथ ले जाते हैं और कहते हैं बस इसी जद्दोजहद में हूँ कि एक दिन इन किताबों से मुक्ति मिल जाये. इनकी ग़ज़लें और नज़्में ध्यान से सुनी पढ़ी जाती हैं.
Photo Credit- The Atlantic