चिन्मयानंद केस: टीआरपी, राजनीति और लांछन, आखिर दोषी कौन?

चिन्मयानंद केस फिर सामने आया है. कहा जाता है कि सत्ता और सिस्टम से जीतना आसान नहीं होता. यह सिस्टम ही होता है, जो अपराधों को भी कानूनी वैधता दिला सकता है. इसे इस कदर पेश किया जा सकता है कि सबकुछ सही हो रहा है. अकसर रेप और हत्या के मामलों में यही देखने को मिलता है. हालांकि, कई बार इसके उलट भी होता है. कई लोग इसी सिस्टम का फायदा भी उठाते हैं और लांछन भी लगाते हैं. मीडिया और आम लोग उस व्यक्ति पर लांछन लगते वक्त मौजूद होते हैं. आरोप हटते वक्त नहीं. आप इसे सही मानिए या गलत. ऐसे आरोप जिसपर लगते हैं. वह उन्हीं के साथ जीता है और उन्हीं का बोझ लिए मर जाता है.

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क्या है चिन्मयानंद केस?

अगस्त 2019 में यूपी के शाहजहांपुर में रेप का एक केस दर्ज हुआ. आरोपी बने बीजेपी के नेता और केंद्रीय गृह राज्यमंत्री रहे चिन्मयानंद. वीडियो आए. मीडिया ट्रायल हुआ. लानत-मलानत हुई. चिन्मयानंद की और कथित पीड़िता की भी. आरोप लगाने वाली लड़की चिन्मयानंद के ही कॉलेज की छात्रा थी. बाद में इसी के सिलसिले में पैसे उगाहने का सामने आया और कथित पीड़िता जेल भी गई. चिन्मयानंद को भी जेल भेजा गया. सत्ता दबाव में आई तो उसने चिन्मयानंद से पल्ला झाड़ना उचित समझा.

क्या सत्ता बलात्कारियों को बचाती है?

हालांकि, सत्ता अपने सिपहसालारों से स्थायी रूप से पल्ला नहीं झाड़ती. मामले में दोनों तरफ से जोर लगाया गया. आरोपी ने खुद को बचाने के लिए प्रपंच तो रचे ही. दूसरे पक्ष की भूमिका भी संदिग्ध लगी. आखिर में एक साल बाद पीड़िता ने रेप का आरोप वापस ले लिया. यह हैरान करने वाली बात हो सकती है. अगर रेप नहीं हुआ, तो केस क्यों किया गया? अगर रेप हुआ तो क्या केस वापस ले लेना, या केस वापस लिए जाने की अनुमति देना उचित है?

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रेप केस में समझौता हो सकता है?

बलात्कार, एक अपराध है. कानून की नजर में भी और एक इंसान की निजी आजादी के लिए भी. निजी तौर पर कोई केस वापस लेना भी चाहे तो क्या कानून इसकी इजाजत दे सकता है? अगर रेप नहीं हुआ था और बेवजह लांछन लगाया गया तो क्या छूठे आरोप लगाने वाले को सजा नहीं होना चाहिए? क्या कोर्ट और प्रशासन का वक्त बर्बाद करने के बाद समझौता कर लेने को अपराध नहीं माना जाना चाहिए?

आरोप वापस हुए तो दोषी कौन है?

इसी केस में मीडिया ने जमकर टीआरपी लूटी. विपक्ष ने मौका पाकर सत्ता पक्ष को आड़े हाथ लिया. बीजेपी को बलात्कारियों की पार्टी कहा गया. और नतीजा क्या निकला? समझौता? आरोप दबाव में लगाए गए कि दबाव में समझौता कराया गया? क्यों न ऐसे मामलों में कोर्ट खुद हस्तक्षेप करे और मामले का सच सामने लाया जाए. ऐसा किया जाना इसलिए जरूरी है कि संस्थागत न्याय में लोगों का भरोसा लौटे. अन्यथा रेप और हत्या जैसे जघन्य मामलों में पीड़ित पक्ष को बताया जाएगा कि देखो, अमुक व्यक्ति भी बहुत आरोप लगा रहा था, ‘ठीक’ कर दिया.

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