हर किसी की जिंदगी के समानांतर एक और जिंदगी होती है और यह सबको दिखाई नहीं देती । यह जिंदगी का एक दूसरा रंग होता है, जो किसी चित्रकार के कैनवास पर तस्वीरों की शक्ल में अपने होने की सूचना देता है, तो कभी किसी शाइर की शायरियों में प्रकट होकर अपने अस्तित्व का आभास कराता है। रघुपति सहाय फिराक़ गोरखपुरी के जीवन के समानांतर की जिंदगी में किस हिज्र की कौन सी रात थी, इसका सही-सही पता तो किसी को नहीं है, लेकिन शायद उनकी इसी जिंदगी के पन्नों पर लिखे हिज्र, रात, इश्क के जानदार शेर उनके लफ्जों को वो हिम्मत और विश्वास देते थे जिनकी बदौलत फिराक़ गोरखपुरी बड़े आत्मविश्वास से कहते थे-
आने वाली नस्लें तुम पर रश्क़ करेंगी हमअस्रों,
जब ये ख्याल आएगा उनको, तुमने फिराक़ को देखा था।
हमें फिराक़ साहब को देखने और जमाने को रश्क करने के मौके देने का मौका तो नहीं मिला लेकिन लगभग दस सालों तक फिराक साहब के सान्निध्य का सुयोग पाने वाले जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रो. शमीम हनफी बताते हैं कि किस तरह से फिराक़ साहब की जिंदगी अकेलापन, विद्रोह, गुस्सा, करूणा, और मजाहियापन का अद्भुत मिश्रण थी। शमीम साहब के मुताबिक फिराक गोरखपुरी को उर्दू साहित्य ने तुरंत स्वीकार नहीं किया, इसका सबसे बड़ा कारण था उनकी शायरियों के रवायत से अलग हटकर चलने की प्रवृत्ति। उनकी शायरियों में एक तरह का खुरदुरापन था और वही उनका आकर्षण भी था।
28 अगस्त 1896 को गोरखपुर के एक कायस्थ परिवार में जन्में रघुपति सहाय अपने बीए की पढ़ाई के दौरान पूरे प्रदेश में चौथी वरीयता प्राप्त विद्यार्थी थे। इतना ही नहीं, वो उस दौर की सबसे प्रतिष्ठित और कठिन परीक्षा आईसीएस में भी चयनित हुए थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर नौकरी छोड़ देने वालों की लिस्ट में रघुपति सहाय का नाम तब जुड़ गया जब उन्होंने इसके लिए 1920 में सिविल सर्विस की नौकरी छोड़ दी। इसके बाद स्वतंत्रता संग्राम में वो कई बार जेल भी गए।
फिराक गोरखपुरी का व्यक्तिगत जीवन बहुत अच्छा नहीं था। वह अपनी शादी को अपने जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना मानते थे। कहा जाता है कि बेजोड़ शादी का यही दर्द उनके अशआरों में दिखाई देता है। 29 जून 1914 को जमींदार विंदेश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से उनका विवाह हुआ था। फिराक़ साहब अपनी पत्नी को पसंद नहीं करते थे। अपने दांपत्य जीवन के दांत पीसकर रह जाने वाली पीड़ा के बारे में बताते हुए वह अपने एक संस्मरण में कहते हैं, “मेरे सुख ही नहीं, मेरे दुख भी इस ब्याह ने मुझसे छीन लिए”। उनके दर्द को आप इस पंक्ति से भी समझ सकते हैं जिसको उन्होंने अपने इस संस्मरण में कोट किया है कि – “मैं पापिन ऐसी जली कोयला भई न राख”
पत्नी के प्रति उनकी नफरत इस कदर थी कि किसी के भी सामने वो उन्हें कोसने से नहीं चूकते थे। इससे संबंधित एक संस्मरण यूं है कि इलाहाबाद में रहने के दौरान एक बार जब उनकी पत्नी गोरखपुर से आईं तब आते ही उन्होंने उनसे सवाल किया, “मरिचा के अचार लाई हो कि नहीं?”। उनके नहीं में जवाब देते ही वे बिफर पड़े और बोले, “जाओ, गोरखपुर से मरिचा का अचार लेके आओ, भूल कैसे गई?”
यह फिराक़ के जीवन का स्याह पक्ष कहा जा सकता है। जाने किस जीवनसाथी के पाने की अभिलाषा या फिर किसके पीछे छूट जाने का दर्द उन्हें रात, अकेलेपन और विरह का शायर बना देता है।
“गरज कि काट दिए जिंदगी के दिन ऐ दोस्त,
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में”
शमीम हनफी साहब बताते हैं कि फिराक़ को रात में जागने की आदत थी। उनके लिए रात सोने के लिए थी ही नहीं। रात की सोहबत का असर उनकी शायरियों में आसानी से देखा जा सकता है, जहां वो कहते हैं कि –
“जमाना कितना लड़ाई को रह गया होगा।
मेरे ख्याल में अब एक बज गया होगा”।
“इसी खंडहर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए,
इन्हीं से काम चलाओ, बड़ी उदास है रात”।
“तुम चले जाओगे हो जाएगी ये रात पहाड़,
रात की रात ठहर जाओ कि कुछ रात कटे”।
“तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में,
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं”।
उदास जिंदगी के अफसानों के बीच फिराक़ साहब के किरदार का एक और पहलू था, जो काफी मजाहिया और दिलचस्प किस्म का था। इलाहाबाद में रहने के दौरान फिराक़ साहब उस दौर के अन्य इलाहाबादी रचनाकारों की तरह कॉफी हाउस की महफिलों में भी जाया करते थे। कॉफी हाउस की कुर्सियों पर बैठकर जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी का यह प्रोफेसर अपनी बुलंद और गूंजती आवाज में शेर सुनाता तो वहां मौजूद लोग अपनी कुर्सियां खींचकर उनके चारों ओर बैठ जाया करते थे। उन्हें बोलने का बहुत शौक था। उस दौरान उनसे किसी ने पूछा कि आप इतनी बातें कैसे कर लेते हैं, तो फिराक़ साहब का जवाब था कि बातें कौन करता है, यह तो दिमाग सांस लेता है। उनकी आवाज जितनी कड़क थी, स्वभाव उतना ही नरम और विनम्र था। उनके जीवन का एक और संस्मरण यूं है कि एक बार अपने दिल्ली प्रवास के दौरान वो जिन सज्जन के यहां रुके हुए थे वो कुछ सालों बाद उनसे मिलने इलाहाबाद आए। उनके दरवाजे पर पहुंचकर उनसे पूछा कि वो उन्हें पहचानते हैं कि नहीं। फिराक़ साहब के इंकार करने के बाद जब उन्होंने अपना परिचय दिया तब फिराक साहब ने उनसे एक चप्पल की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह उठाइए, और मेरे सिर पर मारिए। मैं आपकी पहचान कैसे भूल सकता हूं।
राजनीति में भी रघुपति सहाय की बड़ी दिलचस्पी थी। जवाहर लाल नेहरू से उनके अच्छे संबंध थे। 1917 में जब फिराक़ गोरखपुरी राजनीति में आए तब नेहरू ने उन्हें 250 रुपए महीने पर आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का अंडर सेक्रेटरी बना दिया था। बाद में नेहरू जब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर अध्ययन के लिए विदेश चले गए तब फिराक साहब ने यह पद छोड़ दिया और इलाहाबाद चले आए। आजादी के बाद पहले आम चुनाव में आचार्य कृपलानी ने किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई। इस पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 37 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इन 37 सीटों में से एक सीट गोरखपुर जिला दक्षिणी की भी थी जिस पर पार्टी के उम्मीदवार रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी थे। चुनाव में महज 9 फीसदी वोट पाकर फिराक कांग्रेस के सिंहासन सिंह से बुरी तरह हार गए। हारने के बाद फिराक साहब जब नेहरू से मिले तो उन्होंने हाल चाल पूछते हुए कहा, सहाय साहब, कैसे हैं, इस पर सहाय साहब का जवाब था सहाय कहां, अब तो बस हाय रह गया है।
रघुपति सहाय अपने समय के जाने-माने विद्वानों में गिने जाते थे। उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी में उनकी लगभग 10 कृतियां साहित्य में मौजूदगी रखती हैं। उनकी कृति गुले नग्मा को साल 1970 में साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार भी हासिल हुआ है। इसके अलावा इसी कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। अपनी शायरी के दम पर उर्दू साहित्य में फिराक गोरखपुरी नए तरह की गजल के प्रवर्तक माने जाते हैं। भारतीय संस्कृति की अथाह जानकारी, जीवन के कड़वे अनुभव और उन अनुभवों को गजलों और नज्मों में बांधने की क्षमता उन्हें एक विशिष्टता प्रदान करती है। प्यार, मोहब्बत, दर्द, विरह को शब्द देकर फिराक़ युवाओं की आवाज में गाए जाने वाले सबसे चहेते गीत माने जाते हैं। और इसीलिए, सुख़न की हर महफिल में फिराक़ गोरखपुरी एक अद्भुत और प्रभावशाली उपस्थिति हुआ करती थी, जिसके लिए उन्होंने खुद ही लिखा है कि
रहे सुखन में बचा के नजरें हर एक की मैं जहां से गुजरा,
सदा लगी हर तरफ से आने फिराक़ साहब – फिराक़ साहब।।