इस चुनाव परिणाम का दुख तो मुझे भी है पर यह भ्रम कतई नहीं है कि ये अच्छाई पर बुराई की जीत है। ये बुराई पर ही बुराई की जीत है। जाति की राजनीति पर धर्म की राजनीति की जीत। सिद्धांत विहीन राजनीति पर घटिया सिद्धांत की राजनीति ने जीत दर्ज़ की है। चुनाव अच्छाई और बुराई के बीच में नहीं, उपलब्ध विकल्पों के बीच होता है।
एक तरफ वे चेहरे थे जिन पर जनता लंबे समय तक भरोसा जताकर निराश हो चुकी है। एक गूंगी कठपुतली को दस साल देश का नेता देखने के बाद उसको विकल्प दिया जाता है, परिवारवाद से निकलकर आ रहे एक और चेहरे का, जो खुद को साबित करने में हर बार कतई नाकाम रहा है। जिसे पप्पू साबित करके सरकार आधा चुनाव जीत लेती है और सारा विपक्ष, सारा देश इसकी कीमत चुकाने को विवश हो जाता है।
अमेठी का फैसला वाकई सुकून देने वाला है। अब समय है कि कांग्रेस भी जनता के आदेश को समझे और देश के विपक्ष को कुछ बेहतर उम्मीद दे सके। मुझे कोई खुशी नहीं होती अगर ऐसा विपक्ष सरकार बना लेता। सिर्फ मोदी के भय का मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने वाले जीत भी जाते तो एक बुरा उदाहरण ही पेश करते और जनता अगले पाँच साल बाद फिर दाएं मुड़ना बेहतर समझती।
उम्मीद करनी चाहिए कि अगले पांच साल में एक बेहतर विपक्ष सामने आए जो मोदी की सांप्रदायिक राजनीति को सिद्धान्त की राजनीति से चुनौती दे न कि जातिवाद और अवसरवाद की राजनीति से। जिसमें वंशवाद के प्राकृतिक नियम से आए हुए चेहरों की बजाय जनता के बीच काम करके आए हुए चेहरे हों। मोदी मीडिया से तो बदलाव की उम्मीद अभी पाँच साल नहीं की जा सकती मगर देश के बुद्धिजीवियों से उम्मीद करनी चाहिए कि वो विपक्ष को भी आईना दिखाएँ।
प्रियंका गांधी को चुनाव के ऐन पहले जादू की तरह इस्तेमाल करने जैसे कदमों की तारीफ में पलकें न बिछाएँ। ये सिनेमा नहीं राजनीति है, यहाँ चेहरों का नहीं सिद्धांतों का इस्तेमाल होना चाहिए। याद रखिए, एक बेहतर और मजबूत विपक्ष के बिना सरकार से मोदी को हिलाना अगले दस साल में भी मुश्किल होगा।
और इस सबके पहले जनता को बदलना होगा, बेहतर होना होगा। बेहतर जनता से ही बेहतर विपक्ष निकलेगा। अभी गाँव-गाँव तक पहुचे इन्टरनेट ने लोकतन्त्र को देश के अंतिम सिरे तक पहुचा दिया है। जब तक वहाँ से सांप्रदायिकता और झूठे राष्ट्रवाद को कमजोर नहीं किया जाएगा। जनता अपने जैसा व्यक्ति ही चुनेगी। मोदी और योगी का सख्त और सांप्रदायिक चेहरा ही जनता की फैन्टसी है। जब तक जनता ऐसी रहेगी, कोई न कोई मोदी आकर सारा खेल पलट देगा। जनता को बदले बिना देश और सत्ता के बदलाव की बात सोचना एक भ्रम या मानसिक विनोद के सिवा कुछ नहीं है।
इस मौके पर एक फिल्म सजेस्ट करूंगा, ‘लुक व्हू इज़ बैक’। जर्मन फिल्म है, नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है इंगलिश सब टाइटल्स के साथ। देखिये और आनंद लीजिये इस महान जनादेश का।
क्या रोना, क्या खुश होना? जैसा जन, वैसा जनादेश!
यह लेख कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की फेसबुक वॉल से लिया गया है।