‘कड़वी हवा’, पर्दे पर बंजर का एक ऐसा मंज़र है, जिसके सूखे को आप अपनी आंखों से तर कर देना चाहते हैं. फ़िल्म में संजय मिश्रा ‘हेदू’ नाम के एक अंधे बूढ़े के किरदार में हैं. अगर आपका ताल्लुक गांव से है और आपने ग़रीबी को देखा और महसूस किया है, तो आपको ‘कड़वी हवा’ के लगभग सारे दृश्य सजीव लगेंगे. इतने सजीव कि आप ‘हेदू’ के बदन से निकलते पसीने की ख़ुशबू सूंघ सकते हैं. इतने सजीव कि उसकी प्यास आपको अपने गले में महसूस होती है. इतने सजीव कि हेदू के कांपते हाथों की थरथराहट आपके बदन में उतरने लगती है.
कहानी दो किरदारों के आसपास घूमती है. एक की परेशानी बेहिसाब सूखा है तो दूसरे की परेशानी बेहिसाब पानी है. ‘महुआ’ गांव में बारिश न होने से फसल बरबाद हो चुकी है. किसानों द्वारा फसल के लिए बैंक से लिये गए कर्ज़ की रक़म दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है. रक़म की वसूली के लिए एक एजेंट (रणवीर शौरी) आता है, जिसकी कड़ाई के चर्चे गांव-गांव में मशहूर हैं. यहां उसे सब यमदूत बुलाते हैं और उसकी परछाई से भी डरते हैं. माना जाता है कि जिस गांव में ये एजेंट पहुंच गया, वहां दो-चार लोग फांसी लगा कर मरते ही हैं. हेदू को अपने लड़के मुकुन्द के कर्ज़ की चिंता है. इसीलिए वो गांव में आए ‘यमदूत’ को कर्ज़ की वसूली में मदद करता है और बदले में उसे अपने बेटे से दूर रहने को कहता है. जब हेदू को एहसास होता है कि उसने अपने फ़ायदे के लिए गांव वालों को मुसीबत में डाल दिया है, तब तक उसने और एजेंट ने बहुत कुछ खो दिया होता है.
संजय मिश्रा और रणवीर शौरी की जोड़ी ने फ़िल्म को जितनी उंचाई दी है, नील माधब पांडा के निर्देशन ने उसे उतनी ही गहराई दी है. फ़िल्म के तमाम दृश्यों के साथ-साथ संजय की अदाकारी यक़ीनन आपको याद रहने वाली है. फ़िल्म के डायलॉग आपको कहानी से धीर-धीरे जोड़ते चलते हैं जैसे,‘जब बच्चा हमाये यहां पैदा होत है न तो हाथ में किस्मत की जगह कर्ज़े की रक़म ले के आत है’ या ‘उड़ीसा से हो? सरग है वा तो. हवा की बड़ी किरपा है तुम पर’ या ‘बाबा आपके हर सवाल का जवाब तो एक्कइ रहत है, हवा’.
बचपन से निबंधों में हमें दो वाक्य रटाये जाते रहे हैं, ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है’ और ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’. हमारी सरकारें अगर सचमुच के मनुष्य चलाते हैं तो भारत में किसानों के संदर्भ में ये दोनों ही कथन झूठे मालूम पड़ते हैं और यही बताना इस फ़िल्म का असल मक़सद भी है. ताजमहल और पद्मावती के सतही मुद्दों को हवा देकर जब हज़ारों किसानों का आंदोलन दबा दिया जाए तब ऐसी फ़िल्में क्षणिक ही सही मगर सुकून देती हैं. लेकिन हमारे यहां लोग पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को कितनी गंभीरता से लेते हैं, इसका पता पहले तो इस बात लग गया था, कि हाल ही में दीपावली पर दिल्ली में पटाखों के बैन के बाद लोगों ने इसे धर्म विशेष की मान्यताओं के प्रति हमला बताया और सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले का जमकर मज़ाक उड़ाया था. इसका परिणाम ये हुआ कि हफ़्ते भर बाद ही हवा के ज़हरीले प्रभाव से बचने के लिए यहां स्कूलों को कई दिनों तक बंद रखना पड़ा. दूसरा इस मुद्दे के प्रति गंभीरता का पता इस बात से भी लगता है कि कड़वी हवा के पहले दिन के पहले शो में पूरे हॉल में मुझे मिलाकर कुल 6 दर्शक थे.
कर्ज़ के बोझ तले दबा किसान किस तरह परिस्थितियों से हार कर आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाता है या किस तरह एक बूढ़ा पिता अपने बेटे को सरकारी यमदूत के चंगुल से आज़ाद कराने के लिए, दूसरों को अनजाने ही परेशानी में डाल देता है, इसी की कहानी है कड़वी हवा. फ़िल्म में एक ख़ूबसूरत गीत ‘मैं बंजर’ है, जिसे मोहन कन्नन ने गाया है. इसका अंत गुलज़ार साहब की एक नज़्म से होता है. फ़िल्म ख़त्म होते-होते मुझे फ़रहत एहसास साहब का एक शेर याद आ जाता है.
“मैं शहर में किस शख्स को जीने की दुआ दूँ
जीना भी तो सब के लिए अच्छा नहीं होता”