5 CM बदले, जमीन खिसकती देख रणनीति बदलने पर मजबूर हुई बीजेपी?

नरेंद्र मोदी और अमित शाह

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का युग आने के बाद बहुत कुछ बदला है। पार्टी ने कई ऐसे राज्यों में सरकार बनाई, जहां वह कभी क्षेत्रीय पार्टियों की बी टीम थी। ऐसे राज्यों में सीएम बनाने में मोदी-शाह ने कई बार जातीय समीकरणों को नकारते हुए मुख्यमंत्री चुने। उदाहरण के लिए, जाट और गुर्जर बाहुल्य हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, पटेल बाहुल्य गुजरात में गैर पाटीदार और उत्तर प्रदेश में सबको चौंकाते हुए योगी आदित्यनाथ।

इसके अलावा, बीजेपी ने उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में स्थानीय पहचान को तरजीह भी दी। हालांकि, एक बात समवेत स्वर में जारी रही कि मुख्यमंत्रियों का चुनाव सीधे तौर पर मोदी-शाह की जोड़ी ने किया।  

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मनोहर लाल खट्टर, रघुबर दास, त्रिवेंद्र सिंह रावत, जयराम ठाकुर, आनंदीबेन पटेल और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्रियों के ‘मनोनयन’ को मोदी-शाह का मास्टर स्ट्रोक बताया गया. इनमें से, खट्टर और फिर विजय रुपाणी ने दोबारा सरकार में वापसी भी की. हालांकि, अब मोदी-शाह की ये जोड़ी अपनी रणनीति बदलने पर मजूबर हो गई है.

पिछले तीन-चार महीने में पांच सीएम बदले

बीजेपी ने उत्तराखंड में लगातार दो सीएम बदल दिए और आखिरकार किसी ‘रावत’ की बजाय नए चेहरे को सीएम पद दिया। असम में दूसरी बार सरकार बनने का बावजूद सीएम बदले गए, जबकि सर्बानंद सोनोवाल की पहचान साफ़ छवि के नेताओं में रही है। लिंगायत समुदाय में मजबूत पैठ रखने वाले क्षत्रप बी एस येदियुरप्पा को भी कुर्सी छोड़नी पड़ी. इसके अलावा, गुजरात में भी विजय रुपाणी को हटाकर भूपेंद्र पटेल को सीएम बना दिया गया.

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गुजरात और कर्नाटक में सीधे तौर पर जातीय और क्षेत्रीय पहचान को ध्यान में रखा गया। येदियुरप्पा की जगह लेने वाले बोम्मई भी लिंगायत समुदाय से ही आते हैं. वहीं, न्यूट्रल कास्ट के माने जा रहे विजय रुपाणी को हटाकर अब गुजरात के पाटीदार समुदाय से आने वाले भूपेंद्र पटेल को सीएम बनाया गया है. इसके अलावा, मंत्रिमंडल में भी जातिगत आधार को वरीयता दी गई है।

मजबूर हो गई बीजेपी?

शुरुआत में जब मनोहर लाल खट्टर, विजय रुपाणी या ऐसे नेताओं को वरीयता दी गई थी, तब बीजेपी का तर्क था कि वह जातिगत वरीयता को महत्व नहीं देती। हालांकि, अब ऐसा लग रहा है कि बीजेपी को भी वही फॉर्म्यूला दिख रहा है. ऐसे में संभव है कि हरियाणा में भी अगले विधानसभा चुनाव से पहले सीएम बदला जाय। कहा तो यह भी जाता है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी सीएम बदलने की कोशिश हुई, लेकिन योगी आदित्यनाथ और शिवराज सिंह चौहान की व्यक्तिगत छवि और पकड़ की वजह से ऐसा संभव नहीं हो सका।

ओबीसी वर्ग ने बढ़ा दी है बीजेपी की चिंता

कोरोना की दूसरी लहर के बाद से बीजेपी बैकफुट पर है। अर्थव्यवस्था, महंगाई, रोजगार और स्वास्थ्य के मुद्दे पर बुरी तरह घिरी बीजेपी ने पहली बार नरेंद्र मोदी की छवि को नुकसान होते देखा है। वह भी समझ रही है कि नरेंद्र मोदी हमेशा नहीं रहेंगे। इसके अलावा, राज्यों में हर बार मोदी की छवि पर वोट मांगना भी आसान काम नहीं होगा। इसका नतीजा उसने बंगाल चुनाव में देखा, जहां उसके पास नरेंद्र मोदी के चेहर के अलावा और कुछ भी नहीं था। यही वजह रही कि ममता बनर्जी ने न सिर्फ़ अपनी सरकार बचाई बल्कि उनकी सीटों में बढ़ोतरी ही हुई।

बदल गया मोदी का मंत्रिमंडल

इन्हीं चीजों को ध्यान में रखते हुए नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल को पूरी तरह से बदल डाला। बीजेपी ने खुद लोगों को बताया कि देखिए इतने ओबीसी मंत्री बना दिए। उत्तर प्रदेश के चुनाव को देखते हुए, सिर्फ़़ एक सांसद वाली अनुप्रिया पटेल को भी मंत्री बनाया गया। चुन-चुनकर जातियों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की जाने लगी। जब बीजेपी को लगा कि अब उत्तर प्रदेश में स्थिति थोड़ी बेहतर है, तो उसने उन राज्यों पर भी ध्यान देना शुरू किया, जहां स्थिति थोड़ी खराब है या चुनाव होने हैं।

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नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में किया बड़ा फेरबदल

इसी क्रम में पहले उत्तराखंड, फिर कर्नाटक और फिर गुजरात के मुख्यमंत्री को बदला गया। कोशिश की गई कि साफ छवि के मुख्यमंत्री लाकर ऐंटी इन्कमबेंसी को कम किया जाए और नए चेहरे की बदौलत एक बार फिर से सत्ता में वापसी की जाए।

जातिगत जनगणना पर फंस रही है बीजेपी?

इसके अलावा, ओबीसी आरक्षण और जातिगत जनगणना पर दूसरी पार्टियों की एकता भी बीजेपी के लिए चिंता का विषय है। आरजेडी नेता जब जातिगत जनगणना के मामले को लेकर पीएम मोदी से मिलने आए तो उनके साथ एनडीए में शामिल नीतीश कुमार और मुकेश सहनी भी थे। एनडीए में शामिल कई अन्य पार्टियों के साथ-साथ लगभग पूरा विपक्ष जातिगत जनगणना की बात कर रहा है। यही कारण है कि न चाहते हुए भी बीजेपी अपने ओबीसी नेताओं को बढ़ा रही है, उन्हें मंत्री पद दे रही है और उन्हें मनाने में भी लगी है।

इसका परिणाम असल में किसके पक्ष में जाएगा, यह तो देखने वाली बात होगी, लेकिन इतना तय हो गया है कि आने वाले दिनों में ओबीसी का मामला एक बड़े नैरेटिव में बदलेगा। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के लिए तड़पते विपक्ष के लिए भी यही मुद्दा आसान और सटीक हो सकता है, क्योंकि इसपर बीजेपी सबसे कमजोर हो सकती है और बुरी तरह फंस भी सकती है।

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