पांच राज्यों राजस्थान, तेलंगाना, मिजोरम, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग हो चुकी है। जनता के साथ-साथ नेता भी नर्वसनेस में 11 दिसंबर का इंतजार करने में लग गए हैं। खैर, ये चुनाव भी किसी अन्य चुनाव से अलग नहीं रहे। हां, समय के साथ इतना जरूर हुआ है कि लगातार गिरता जा रहा बयानबाजी का स्तर एक और लेवल नीचे गिर गया, जिसके भविष्य में आगे और नीचे गिरने की ही आशंका है।
भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य है कि यहां कभी भी जिन मुद्दों की जरूरत होती है, उनकी कभी बात ही नहीं होती है। खासकर चुनावों में। नया ट्रेंड यह शुरू हो गया है कि चुनाव कहीं भी हो, चाहे विधानसभा का हो या पंचायत का। अगर मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस में होगा तो मुद्दा राफेल डील, अगुस्टा डील और सर्जिकल स्ट्राइक ही होगा।
नाम बदलने वाला वादा
ये भी एक लेवल तक मान्य हो सकता है लेकिन एक नए भाई साब निकले हैं ‘बाबा नाम बदल’। योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। हालांकि, वह या तो गोरखनाथ धाम में पूजा करते देखे जाते हैं या फिर चुनावों में प्रचार करते। जब लखनऊ में होते हैं तो नाम बदलने लगते हैं। ऐसा ही कुछ वादा उन्होंने हैदराबाद में कर डाला है कि अगर तेलंगाना में चुनाव जीते तो हैदराबाद को भाग्यनगर कर देंगे। अब इस चुनावी वादे से जनता को क्या मिलेगा, ये तो भगवान ही जाने।
मां-बाप पर हमला
कई राज्यों में सत्ता में वापसी का सपना देख रही और दावा कर रही कांग्रेस ने एक और लेवल नीचे जाने का काम किया। नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, ऐसे में हर देशवासी का हक है कि वह उनकी आलोचना कर सके और उनसे सवाल कर सके। यह दूसरी बात है कि वह जवाब देते हैं या नहीं। इसी आलोचना की आड़ लेकर कुछ नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां फिर उनके पिता पर टिप्पणी की। अब चुनाव में असल मुद्दों की बजाय नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी के मां-बाप का नाम घसीटने वाला बयान किसी को क्या फायदा-नुकसान हो सकता है, इसको जनता को समझना चाहिए।
सांप्रदायिक वादे
इन वादों को अब नया नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि भारत में यह अब सामान्य हो चला है। देश का प्रधानमंत्री तक अपनी चुप्पियों से इनका समर्थन करता नजर आता है। तेलंगाना में ओवैसी बंधु हों, योगी आदित्यनाथ हों या कोई और नेता। ध्रुवीकरण की कोशिश हर कोई करता रहता है और भोली-भाली जनता न जाने क्या सोचकर इनके झांसे में आ भी जाती है।
खैर, हमें फिर वक्त मिलेगा, फिर मौका मिलेगा कई और चुनाव देखने और ऐसा ही बयानबाजी सुनने का। फिर से ऐसी ही बयानबाजियां होंगी और फिर से प्राइम टाइम डिबेट में दंगा होगा। फिर भी हमें यह समझना होगा कि चुनावी बयानबाजी से असली चुनावी मुद्दों को छिपाया जा रहा है। हमें समझना होगा कि जानबूझकर ऐसे जुमले उछाले जाते हैं कि जनता इस बात पर बहस और चर्चा करती रह जाए और यह भूल जाए कि पांच साल पहले फलां सरकार ने क्या वादा किया था। इस बार के लिए तैयार रहिए और नोट कर लीजिए कि कौन क्या वादा कर रहा है। भविष्य में काम आएगा।