बिहार विधानसभा चुनाव 2020 की तारीखों का ऐलान हो चुका है। तीन चरण की वोटिंग 28 अक्टूबर को शुरू होगी और 10 नवंबर को रिजल्ट आएंगे। इस बार बिहार चुनाव हर बार से थोड़ा अलग है। ऐसा इसलिए नहीं कि बिहार के लोग इस बार ‘जाति’ को भूल कर ‘काम’ को वोट देंगे, बल्कि इसलिए क्योंकि इस बार मैदान में नीतीश, लालू और पासवान के अलावा एक नया चेहरा भी है। जी हां, बात पुष्पम प्रिया चौधरी की हो रही है। पुष्पम प्रिया चौधरी विदेश से पढ़ कर आई हैं और उनके पास बिहारियों के लिए एक डेवलेपमेंट मॉडल है। पर सोचने वाली बात ये है कि क्या बिहारियों को ये मॉडल समझ में आएगा? ये प्रश्न चुनाव से पहले पूछना इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि बिहार के चुनावी मुद्दों में बिजनेस और फैक्ट्री कभी रही ही नहीं।
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पुष्पम प्रिया का डेवलपमेंट मॉडल
बिहार को करीब से जानने और राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि 1946 में श्रीकृष्ण सिंह की सरकार हो या आज नीतीश कुमार की, बिहार को जातिगत राजनीति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। बिहार में हर बार के चुनावी मुद्दों पर नजर डालें, तो ये मुद्दे विशेष जाति से जुड़े, गरीबी, अपराधीकरण, टूटी सड़कें, लड़कियों के लिए साइकिल, शिक्षा मित्र, शिक्षक भर्ती और सरकारी नौकरी से ऊपर कभी उठ ही नहीं पाए। वहां पुष्पम प्रिया बिजनेस, फैक्ट्री और एग्रो बेस्ड इंडस्ट्री की बात कर रही हैं।
नीतीश वर्सेज WHO के चक्कर में पार हो जाएगी NDA की नैया?
ये बड़ी ही रोचक बात है कि बिहार में पहली बार किसी ने व्यापार की बात की है और इसे आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के बारे में सोचा है। पुष्पम समझती हैं कि कैसे आर्थिक रूप से मजबूत राज्य में ये तमाम पुराने चुनावी मुद्दे और वादे हवा हो सकते हैं। यहां तक कि पुष्षम अगर चुनाव जीत जाएं और वो अपने वादों को पूरा करने में थोड़ा भी सफल हो जाएं, तो कई नेताओं और उनके बच्चों का सियासी करियर खतरे में पड़ जाएगा। पर प्रश्न यही है कि क्या बिहार की जनता पुष्षम को वोट देगी?
पुष्पम प्रिया कर रही रही हैं प्रोफेशनल राजनीति?
पुष्पम प्रिया की बातों से लगता है कि वो एक प्रोफेशनल राजनीति करने आई हैं। वो होमवर्क करके आई हैं पर क्या लोग उनके इन सपनों पर सच में भरोसा कर पाएंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि बिहार में सरकार चाहे जिसकी भी हो बिना जाति की बात किए न तो प्रोफेशनल राजनीति हो सकती है और न ही सामाजिक राजनीति। आसान भाषा में समझिए, तो काम कोई कुछ भी करे, वोट तो लोग अपनी जाति वालों को ही देंगे।
बिहार में बिना जाति कुछ संभव नहीं?
यानी कि पुष्पम प्रिया को बिहार में जातिगत मुद्दों को भी समझना होगा और लोगों से इस बारे में जाकर बात करनी होगी। उन्हें सीधे शब्दों में बिहारियों को समझाना होगी कि कब तक वो किसी विकास बाबू को गरीबी, अपराधीकरण और टूटी सड़कों के नाम पर वोट देंगे? कब तक वो कम खराब और ज्यादा खराब नेता के बीच चुनाव करते रहेंगे। मुद्दों में बाढ़ और बीमारियों से बचाव की बात कब आएगी। कब तक बिहारी भारत में प्रवासी मजदूर बन कर पेट पालेगा।
तो क्या बिहार के युवाओं की सरकारी सोच में लाना होगा बड़ा बदलाव?
किसी भी राजनीतिक पार्टी को एक प्रबल जीत के लिए हमेशा किसी बड़ी सामाजिक और वैचारिक क्रांति की जरूरत होती है। बिहार में क्रांति की गति सुस्त है क्योंकि यहां सबको बस एक सुस्त सरकारी नौकरी चाहिए। आप कहीं भी जाइए लोग बदलाव चाहेंगे पर इसके लिए अपना नेता बदलना नहीं चाहेंगे। सिस्टम बदलने की बात करेंगे, पर सिस्टम में जाकर वो बदलाव से डरेंगे। ये डर ऊपर से नीचे तक भरा गया है और पाला जा रहा है। ऐसे समाज में पुष्पम प्रिया के लिए बिहारियों को प्लूरल्स का पहाड़ा पढ़ाना एक बड़ी चुनौती होगी।
लोगों को समझाना बड़ी चुनौती
भले ही वो सांस्कृतिक बिहार की बात कर रही हैं, बंद पड़े कारखानों की बात कर रही हैं, मिथला और मगध की बात कर रही हैं पर उन्हें वहां के नौजवानों को समझना होगा कि सिर्फ आईएएस, पीसीएस और सरकारी बाबू बनना ही सब कुछ नहीं है , पूरी दुनिया को तरकारी बेच कर भी विश्व विजेता बना जा सकता है। तो कुल मिला कर ये देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि पुष्पम बिहार के लोगों को बिजनेस का गणित और ग्रामर कितना और किस हद तक समझा पाती हैं।