महराजो! भारत में ‘पूड़ी पॉलिटिक्स’ समझते हैं क्या होता है?

हो सकता है बहुतों को राजनीति की इस शाखा के बारे में कुछ भी न पता हो। भला हो भी कैसे सकता है! दरअसल दुनिया भर के पॉलिटिकल साइंस की किसी भी किताब में इसका जिक्र हो, ऐसा सुनने को नहीं मिलता है। ऑक्सफ़ोर्ड, कैलिफोर्निया, हॉवर्ड, मैसाचुएट्स, मिलान यूनीवर्सिटी से लेकर DU, JNU, AMU JMI के सिलेबस से बाहर की पढ़ाई है। इसकी थ्योरी हमेशा अस्थायी होती है। समय के साथ पलड़े बदलते रहते है। इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से लंबे समय तक कोई फायदा नहीं होता है। पुराने ढर्रे पर चलने वाले गाँव में तात्कालिक नफा-नुकसान के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया जाता है। इसमें कुछ लोगों को आर्थिक लाभ भी हो जाता है। हालांकि, इसकी अभी तक कोई सटीक स्थायी परिभाषा ईजाद नहीं हो पाई है। राजनीति विज्ञानियों ने इस पर या तो कोई ध्यान नहीं दिया या फिर उन्होंने राजनीति के ऐसे बदचलन तरीके के बारे में सुना न हो। राजनेता भी राजनीति की इस बेचारी टर्मलॉज़ी का अपने भाषणों में कभी इस्तेमाल भी नहीं करते।

उत्तर भारत में इस समय शादी-विवाह का भी समय चल रहा है। ऐसे मौके पर पूड़ी पॉलिटिक्स और भी तेज़ हो जाती जाती है। जैसे चुनाव आते ही राजनीतिक दलों द्वारा लोकलुभावन घोषणाओं के चक्कर में जनता पड़ जाती है। इस राजनीति की सबसे ख़ास बात आपको राष्ट्रीय राजनीति में खूब देखने को मिलेगी। मसलन 2014 लोकसभा चुनाव के पूर्व नरेंद्र मोदी जी द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख रूपया देने। स्थानीय भोज में भी कपड़े-घड़ी के अलावा और कुछ सामान दिया जाता है।

इसके मार्फ़त विश्व राजनीति को भी आसानी से समझा जा सकता है। हथियार उत्पादक शक्तिशाली मुल्क़ युद्ध की आशंका का माहौल बनाकर हथियार बेचते हैं। गाँव ने कुछ कथित श्रेष्ठता बोध वाला परिवार पीड़ित पक्ष का शोषण सामने वाले के मुकाबले के नाम पर करता रहता है। किसी भी गांव में नजर डालिएगा तो हर जाति में एक बड़का घर, छोटका घर और मंझिला घर होता है। इसका सीधा कॉन्सेप्ट यह है कि आर्थिक और सामजिक वर्चस्व के साथ एक वर्ग खड़ा होता है। सामने वाले पर वर्चस्व स्थापित करने का सबसे प्रभावशाली तरीका होता है। जैसे गाँव का कोई सजातीय लड़का या लड़की अंतर्जातीय विवाह कर ले। उसके बाद कुछ लोग उस लड़के/लड़की के परिवार वाले के पक्ष में हो जाते हैं, कुछ विपक्ष में। उसके बाद भारत-पाकिस्तान या अमेरिका और मैक्सिको वाली स्थिति स्वतः बन जाती है। आसान शब्दों में कहें तो यह कुजात छांटने की स्थानीय राजनीतिक शब्दावली है।

सुप्रसिद्ध राजनेता स्व. रामसुभग सिंह के गाँव के रहने वाले और राष्ट्रीय जनता दल के नेता भीम कुमार ने बताया कि यह ब्राह्मणों की आपसी वर्चस्व का सिलेबस है। ब्राह्मण बहुल गांव में ऐसा देखने सुनने को मिलता है। छोटी या अन्य बड़ी जातियों के गाँव में ऐसा देखने को कम मिलता है। इस सवाल को मैंने भकुरा गाँव के निवासी कवि और चित्रकार रविशंकर सिंह के सामने रखा। समाज शास्त्र से पीएचडी कर रहे रवि ने भीम कुमार की बात की पुष्टि करते हुए बताया कि जिस गाँव में ब्राह्मणों की अधिकता होती है वहां ऐसा देखने को मिलता है। वरना अन्य जातियों की बहुलता वाले गाँव में उच्च और निम्न माने जाने वाली जातियों के साथ ही ऐसा होता है।

मैंने इस सवाल को अलग-अलग राज्य के लोगों के सामने भी उठाया। उन्हें इस बाबत कुछ पता नहीं। बीबीसी के पंकज प्रियदर्शी से जब मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि चुनाव के समय उम्मीदवारों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए भोज कराने के कार्य को पूड़ी पॉलिटिक्स कहा जाता है। बक्सर के निवासी बीके मिश्रा ने कहा कि राजनेता जब दलितों के घर भोजन कर समाचार में सुर्खियां पाना चाहता है तो उसे “पूड़ी पॉलिटिक्स” कहा जाता है।

बिहार के बक्सर जिला अन्तर्गत ब्रह्मपुर थाना के पाण्डेयपुर गाँव में इसका स्वरूप सबसे जुदा है, जो समय के साथ नियमित तौर पर बदलता है। पूड़ी पॉलिटिक्स के जानकार आनंद पाण्डेय का कहना है कि यह बेरोजगारों और निठल्लों की मानसिक ख़ुराक है और नौकरी-पेशा वालों का अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का सस्ता तरीका है। आनंद का आगे कहना है कि गंवई राजनीति में सक्रिय रहने का बेहतर उपाय भी है।

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यह टिप्पणी आशुतोष कुमार पांडेय की है।  

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