अज्ञेय के दूसरे तारसप्तक के कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने इस देश के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आपातकाल तक के इतिहास को अपनी आंखों से देखा है। 29 मार्च 1913 को गांव टिगरिया, होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) में जन्में भवानी भारत छोड़ो जैसे स्वतंत्रता आंदोलनों में भी सक्रिय रहे। उनकी कविताओं में देश के इतिहास की झलक साफ देखी जा सकती है। भवानी गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित थे। कविता, निबंध, बाल साहित्य, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में इन्होंने अपनी कलम चलाई है। गीतफरोश, चकित है दुख, गांधी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, अनाम तुम आते हो, इदन्नमम्, शरीर कविता फसलें और फूल, मान-सरोवर दिन आदि इनके काव्य संग्रह हैं। इसके अलावा भवानी प्रसाद ने ‘संपूर्ण गांधी वांङ्मय’, ‘कल्पना’ (साहित्यिक पत्रिका), ‘विचार’ (साप्ताहिक), ‘आज के लोकप्रिय कवि श्रृंखला में : बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की कविताएँ’, ‘महात्मा गांधी की जय’ (श्री मन्नारायण अग्रवाल के साथ), ‘मृत्युंजयी गांधी (प्रभाकर के साथ)’, ‘समर्पण और साधना’ (जानकी देवी बजाज स्मृति ग्रंथ), ‘गगनांचल’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया।
आज भवानी प्रसाद मिश्र का जन्मदिन है। कविताई में आज हम आपके लिए लेकर आए हैं – अपने लय और प्रवाह के लिए खासतौर पर विख्यात उनकी कविताः ‘सतपुड़ा के घने जंगल’
‘सतपुड़ा के घने जंगल’
सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनौने, घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाएँ।
साँप सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात-झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फूस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल।
जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरण दल,
झूमते बन-फूल, फलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।