यह वाकई हैरान करने वाली बात है कि आज तक मुख्य चुनाव आयुक्त का चुनाव सत्ताधारी दल ही करता है। मुख्य चुनाव आयुक्त का पद बेहद ही जिम्मेदारी भरा है। उसकी यह जवाबदेही होती है कि देश में होने वाले छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक के चुनाव को साफ-सुथरा बनाए। ऐसे में अगर इस महत्वपूर्ण पद पर बैठने वाले व्यक्ति का चयन केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी के द्वारा किया जाएगा तो ठीक बात नहीं है। इससे इस बात की संभावना पैदा हो जाती है कि मोटे तौर पर प्रधानमंत्री द्वारा चुना गया देश का मुख्य चुनाव आयुक्त निष्पक्ष नहीं होगा। उस व्यक्ति के निर्णयों में सत्ताधारी दल का दबाव या एहसान असर डाल सकता है। इस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने यह उचित ही केन्द्र सरकार से पूछा है कि देश के मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कोई कानून क्यों नहीं हैं।

 

मालूम हो कि यह पहली बार नहीं है जब इस बात पर चर्चा छिड़ी हो कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में विपक्ष की कोई भूमिका क्यों नहीं है। इससे पहले भी भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी यूपीए के शासनकाल में यह मुद्दा उठा चुके हैं। बताया जाता है कि आडवाणी ने इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में विपक्ष को शामिल करने की मांग रखी थी। लेकिन उनके इस सुझाव पर सत्तापक्ष द्वारा कुछ खास ध्यान नहीं दिया गया। हालांकि, एनडीए के सत्ता में आने के बाद भी इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई और लाल कृष्ण आडवाणी ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ध्यान इस ओर नहीं खींचा।

 

गौरतलब है कि एक लोकतांत्रिक देश के लिए यह बहुत जरूरी होता है कि देश के महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर आसीन होने वाले व्यक्ति का चयन निष्पक्ष ढंग से किया जाए। इन महत्वपूर्ण पदों का कार्यभार संभालने वाले व्यक्ति के चयन के लिए एक समिति हो जिसमें सत्तापक्ष सहित विपक्ष और समाज के कुछ पद विशेष जानकार व्यक्तित्व भी सक्रिय भूमिका निभाएं। जैसा कि हमारे यहां सूचना आयोग, सीबीआइ और लोकपाल की नियुक्ति में होता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दखल देने के बाद अब इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि शायद मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की खामी भरी प्रक्रिया बंद हो जाएगी और मुख्य चुनाव आयुक्त का चुनाव निष्पक्ष ढंग से होता मालूम पड़ेगा।