लोकसभा चुनाव के दो चरण की वोटिंग अभी बाकी है लेकिन नेताओं के बयान सुन-सुनकर मन पाका (फोड़ा) हो गया है। वही, एक-दूसरे पर निजी हमले, एक-दूसरे के खानदान और चरित्र के हनन की कोशिश और बाद में झूठे साबित होने वाले वादे और जुमले। जहां चुनाव में प्रचार का मतलब अपना विजन बताना होना चाहिए था, वहां गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं। सत्ता पक्ष ऐसे आरोप लगा रहा है, जिनपर उसने पांच साल के कार्यकाल में कोई कार्रवाई भी नहीं की। वहीं, विपक्ष ऐसे कामों के लिए आलोचना कर रहा है, जिसमें वह खुद से सिर से पैर तक सना हुआ है।
हमेशा के लिए चुनाव में सबसे आसान जाति और धर्म पर वोट मांगना होता है। वोटर के लिए इसी आधार पर प्रत्याशी का चुनाव कर लेना भी सबसे आसान होता है। प्रत्याशी की योग्यता, उसकी सामाजिक छवि, उसकी शिक्षा और रिपोर्ट कार्ड पर ना तो पार्टियां मेहनत करना चाहती हैं और ना ही मतदाता अपना वोट डालने से पहले प्रत्याशियों के बारे में जानकारी जुटाना चाहते हैं। लिहाजा, धर्म और जाति के आधार पर वोट डाले जाते हैं। पांच साल सबसे ज्यादा निराशा इन्हीं मतदाताओं को होती है लेकिन ये पांच साल बाद फिर से अपनी जाति या धर्म वाले नेता के लिए वोट करने खड़े होते हैं।
नेताओं को अपना प्रचार करने के लिए नामांकन से पहले और उसके बाद भी पर्याप्त समय दिया जाता है। 70 लाख रुपये की भारी भरकम राशि खर्च करने की अनुमति दी जाती है। इस छूट के चलते के कई बार प्रत्याशी अपनी आय से भी ज्यादा पैसे घोषित रूप से खर्च करते हैं। इसके बावजूद ‘असली’ चुनाव तभी होता है, जब अपने प्रतिद्वंद्वी का चरित्र हनन कर दिया जाए। उसपर मनगढ़ंत आरोप लगा दिए जाएं और रोज रैलियों में दिए जाने वाले भाषण में अपने विजन की बजाए यह बताया जाए कि ‘फलां चोर है’, ‘फलां का बाप चोर है’ या ‘फलां की पूरी पार्टी ही चोर है’।
विडंबना ये है कि इस सबके बावजूद चुनाव के बाद यही नेता एक-दूसरे के साथ आ सकते हैं और साथ आने का आरोप ‘लोकतंत्र’ पर लगा सकते हैं। भ्रष्टाचार के तमाम आरोप जो एक-दूसरे पर लगाए गए होते हैं, वे भुला दिए जाते हैं। मंत्रीपद की रेवड़ी आपस में बांट ली जाती है और चल पड़ती है ‘लोकतंत्र’ की चोरगाड़ी। पहले भी और हाल ही में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जिसमें देखा गया है कि एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले लोग भी साथ आए हैं और इतनी चालाकी से साथ आए हैं कि ‘लोकतंत्र’ भी गाली बनकर रह गया है।