एमपी चुनाव: धूल झाड़कर उठ खड़ी हो पाएगी कांग्रेस?

मध्य प्रदेश का यह विधानसभा चुनाव कई मायनों में यादगार रहा. इस बार का चुनाव मतदाताओं और नेताओं के बीच लुका छिपी का खेल कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. पूरे चुनावी रण में मतदाताओं की खामोशी ने राजनेताओं के दिलो दिमाग में तड़प पैदा कर दी थी. बीजेपी और कांग्रेस के बड़े नेताओं तक को यह नहीं पता चल पाया कि वे जिस भाग्य विधाता से रोज मिलने जा रहे हैं, वह मतदान किसको करेगा.

मध्य प्रदेश में एक कहावत बड़ी चर्चित है कि यहां कांग्रेस जब भी हारी खुद से हारी, बीजेपी से नहीं. थोड़ा पीछे चलते हैं. दिग्विजय सिंह, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कभी कांग्रेस की राजनीति के चाणक्य भी कहे जाते थे और दिल्ली में कांग्रेस के वॉर रूम का प्रमुख चेहरा हुआ करते थे। इस बार मध्य प्रदेश चुनाव से पहले चर्चा में आ गए थे. कारण यह कि उन्होंने नर्मदा परिक्रमा कर डाली. नर्मदा वह नदी है, जिसे मध्य प्रदेश की जीवन रेखा कहा जाता था. नर्मदा की पूजा यहां घर-घर में की जाती है. इसी परिक्रमा ने एमपी में कांग्रेस को हरकत में ला दिया था.

कांग्रेस में जगने लगा था भरोसा

हरकत में कुछ यूं कि कांग्रेस भले ही उस समय तक एकजुट ना हो पाई हो लेकिन उसको यह एहसास हो गया था कि इस बार का मध्य प्रदेश चुनाव वह चुनाव साबित हो सकता है, जब कांग्रेस धूल झाड़कर खड़ी हो सकती है. नर्मदा यात्रा के बाद एकजुट हुए कांग्रेस नेताओं ने शक्ति प्रदर्शन कर इसके संकेत भी दे दिए थे.

अब चुनाव से पहले बीजेपी के ताने-बाने पर नजर दौड़ाएं तो उसके राष्ट्रीय नेतृत्व को यह मालूम था कि सरकार पुरानी हो चली है और उसे क्या करना है. अमित शाह काफी पहले सक्रिय हो गए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे भी शुरू हो चुके थे.

राहुल गांधी का मंदसौर दौरा

मध्य प्रदेश के मालवा में स्थित मंदसौर जिला, जहां करीब डेढ़ बरस पहले एक गोलीकांड हुआ था, उसने शिवराज सरकार को सोचने पर मजबूर कर दिया था। गोलीकांड की पहली बरसी पर राहुल गांधी के मंदसौर दौरे ने किसान केन्द्रित मध्य प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस के लिए माहौल की नींव रख दी थी. राहुल गांधी ने उस दौरे के माध्यम से ना सिर्फ प्रदेश के किसानों के लिए कर्ज माफ़ी का ऐलान किया बल्कि कांग्रेस नेताओं को एकजुट रहने के सख्त संकेत भी दे दिए थे.

अब चुनाव पर आते हैं. कुछ दिन पहले टिकट बंटवारे के समय कांग्रेस के दिग्गजों के बीच कहासुनी की खबरें आईं तो, लेकिन वे बीजेपी के लिए कोई फायदा देती नजर आईं हों ऐसा दिखा नहीं. पूरे चुनावी कैम्पेन में कांग्रेस इसी बात पर जोर देती रही कि शिवराज सरकार की जितनी भी योजनाएं हैं, वे मात्र छलावा हैं. जबकि बीजेपी के शीर्ष नेताओं से लेकर प्रत्याशियों तक ने कांग्रेस की 15 साल पुरानी दिग्विजय सरकार और कमलनाथ के वायरल वीडियो को ही निशाने पर रखा. पीएम मोदी, अमित शाह ने जरूर कांग्रेस के 70 साल के शासन और राहुल गांधी को जमकर कोसा.

मतदान प्रतिशत बढ़ने का क्या है मतलब?

मतदान प्रतिशत बढ़ा तो है लेकिन बीजेपी के लिए जो सबसे चिंता की बात है, वह है खुद संघ का सर्वे और चुनाव के तुरंत पहले मध्य प्रदेश का सट्टा बाजार.

मतदान प्रतिशत की बात करें तो इस चुनाव में 2013 के मुकाबले तीन प्रतिशत से ज्यादा मतदान हुआ. इस बार 74.61 का प्रतिशत रहा. मतदान प्रतिशत बढ़ा तो है लेकिन बीजेपी के लिए जो सबसे चिंता की बात है वो खुद संघ का सर्वे और चुनाव के तुरंत पहले मध्य प्रदेश का सट्टा बाजार. सट्टा बाजार पिछले कुछ वर्षों से राजनीति और चुनाव के आंकड़ों के लिहाज से दिलचस्प हो गया है.

संघ के सर्वे की रिपोर्ट हालांकि सार्वजनिक रूप से तो नहीं बताई गई थी लेकिन सूत्रों के बीच यह चर्चा थी कि कांग्रेस बहुमत से ऊपर 120 सीटों तक पहुंच सकती है और बीजेपी को 95-100 के बीच सीटें. इतना ही नहीं प्रदेश के कई मंत्री भी चुनाव हार जाएंगे, यह भी संघ ने शिवराज को बता दिया था. वहीं अंतिम समय में सट्टा बाजार ने बीजेपी के लिए 99 से 101 सीटों पर ही दांव लगाया.

ऐंटी इंकंबेंसी भी डालेगी असर!

अगर ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो यह तय है कि एंटी इंकंबेंसी अपना असर दिखा सकती है. मालवा में किसान आंदोलन और चंबल में जाति आंदोलन सरकार की खिलाफत करते ही दिखाई दिए. महाकौशल के कई जिलों में जहां कांग्रेस की कोई सीट नहीं थीं, बीजेपी के साथ उसकी बराबरी की टक्कर दिखी.

अब भाग्य विधाताओं ने अपना फैसला तो सुना दिया, और वह EVM में कैद भी हो गया. 11 दिसंबर को जब राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के साथ मध्य प्रदेश के चुनाव के परिणामों की घोषणा होगी तो यह तय है कि वे परिणाम कांग्रेस के भविष्य की राजनीति की दिशा तय करेंगे कि मोदी-शाह की जोड़ी से लागातर पटखनी खा रही कांग्रेस धूल झाड़कर खड़ी हो पाएगी या नहीं!

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