न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना
जब-जब भारत के स्वाधीनता इतिहास में महान क्रांतिकारियों की बात होगी तब-तब भारत मां के इस वीर सपूत का जिक्र होगा। वो सिर्फ एक महान क्रन्तिकारी ही नहीं थे बल्कि उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद् व साहित्यकार भी थे। उन्होंने अपनी बहादुरी और सूझ-बूझ से अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ा दी थी और भारत की आज़ादी के लिये मात्र 30 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी।
जी हां, आज हम सरफ़रोशी की तमन्ना रखने वाले कवि ‘राम प्रसाद बिस्मिल’ को याद कर रहे हैं, जिनका आगामी 11 जनवरी को जन्मदिन है। राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम मुरलीधर और माता का नाम मूलमती था। जब राम प्रसाद सात वर्ष के हुए तब पिता पंडित मुरलीधर घर पर ही उन्हें हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। पर बिस्मिल का मन ज्यादा उर्दू भाषा में लगने लगा।
जब वह 18 वर्ष के थे तब उनके स्वाधीनता सेनानी भाई परमानन्द को ब्रिटिश सरकार ने ‘ग़दर षड्यंत्र’ में शामिल होने के लिए फांसी की सजा सुनाई (जो बाद में आजीवन कारावास में तब्दील कर दी गयी और फिर 1920 में उन्हें रिहा भी कर दिया गया)। यह खबर पढ़कर रामप्रसाद बहुत विचलित हुए और ‘मेरा जन्म’ शीर्षक से एक कविता लिखी और उसे स्वामी सोमदेव को दिखाया।
1916 में हुए आर्यसमाजी
पर बिस्मिल ने सीधे-सीधे आजादी की लड़ाई में भाग 1916 में लिया। जब वह लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था तब उसी वक्त बिस्मिल की मुलाक़ात केशवराव बलिराम हेडगेवार से हुई और इसके बिस्मिल आर्य समाज से जुड़ते चले गए। वह आर्य समाज के विचारों से इस तरह प्रभावित थे कि एक बार पिता के द्वारा कहने पर कि तुम या तो आर्य समाज छोड़ दो या घर तो उन्होंने घर का ही त्याग कर दिया। खैर! इसके बाद उनके पिता उन्हें समझा बुझा कर घर तो ले आएं पर आर्य समाज से जुड़े ही रहे।
इन्हीं दिनों एक और रोचक घटना हुई, जिसके बाद हर भारतीय वीर गुनगुनाने लगा वही गीत जिसने बिस्मिल को न सिर्फ स्वतंत्रता की लड़ाई का अमर शहीद बनाया बल्कि कविताओं में भी इन पंक्तियों के लिए वह अमर हो गए ।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है
जी हाँ, यही वह पन्क्तियां हैं, और इसके पीछे की कहानी भी बड़ी ही रोचक है। हुआ यह कि एक बार अशफाक़उल्ला खान साहब बिस्मिल से मिलने आर्य समाज के मंदिर आए। अशफाक़उल्ला खान साहब को कुछ न कुछ गुनगुनाने की आदत थी। उस दिन वो ज़िगर मुरादाबादी की गजल गुनगुना रहे थे। कौन जाने यह तमन्ना इश्क़ की मजिल में हो, जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में हो।
बिस्मिल यह सुनकर जब मुस्कुराने लगे तो अशफाक़उल्ला खान ने मुड़कर पूछा कि “क्या मैंने कुछ गलत गुनगुना लिया है? तो इस पर बिस्मिल ने कहा “ नहीं मेरे दोस्त, यह बात नहीं है। मैं तो जिगर साहब की बड़ी इज्जत करता हूँ पर मिर्जा ग़ालिब की पुरानी जमीन पर घिसा-पिटा शेर कहकर उन्होंने कौन सा बड़ा तीर मार लिया है। बस यह बात खान साहब को जरा चुभ गई और उन्होंने कहा तो मियां आप ही कुछ इस जैसा सुना के दिखाएं तो हम माने। बस तो निकला उनके मुंह से वो आज तक दुनिया गुनगुनाती है।
1917 से 18 तक बिस्मिल पूरी तरह क्रांतिकारी बन चुके थे। इस दौरान बिस्मिल ने देशवासियों के नाम सन्देश लिखना और पम्प्लेट्स बांटना शुरू कर दिया था। पर कहते हैं न हुजूर। क्रांति और बगावत करने के लिए भी जेब मैं पैसा होना चाहिए। अतः वो और उनके कुछ साथी जैसे अशफाक़उल्ला खान, चंद्रशेखर आजाद। राजगुरू, सुखदेव और ठाकुर रौशन सिंह अंग्रेजों के ठिकानों पर डकैती किया करते थे।
9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन में ट्रेन को रोकर सरकारी खजान लूटने की घटना अग्रेजी हुकूमत को एक खुले आम चुनौती थी। इस घटना के नायक थे ‘राम प्रसाद बिस्मिल’। 26 सितम्बर 1925 को बिस्मिल के साथ पूरे देश में 40 से भी अधिक लोगों को ‘काकोरी डकैती’ मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। रामप्रसाद बिस्मिल को अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह के साथ मौत की सजा सुनाई गई।
इस दौरान जब वह जेल में थे तब वो भी बिस्मिल ने कसरत करना नहीं छोड़ा। फांसी से एक दिन पहले कसरत करते हुए बिस्मिल से जेल के वार्डन ने पूछा कि “ भाई कल तुम्हें फांसी होने वाली है तो आज भी इतनी कसरत क्यों? तो बिस्मिल का जवाब था –“ ताकि अगले जन्म में और शक्तिशाली बनकर पैदा होऊं और फिर अंग्रेजों को देश से भगा दूंगा।
वह कहते थे…
हे ईश्वर! भारत में मेरा शत बार जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का, देशहित कारक कर्म हो….
ऐसे थे हमारे अमर शहीद, महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल। यह मुल्क उन्हें सदा ही उनके बलिदानों के लिए नमन करता रहेगा।