बुक रिव्यू: चार अधूरी बातें

char adhuti baten

कभी-कभी एक मुलाक़ात में बहुत सारी बातें हो जाती हैं और कभी-कभी बावजूद बहुत सारी मुलाक़ातों के कुछ बातें अधूरी रह जाती हैं। यह अधूरी बातें दिल को बहुत कचोटती हैं लेकिन अक्सर या तो वक़्त की धूल में गुम हो जाती हैं या फिर यादों की बर्फ़ की मोटी चादर तले दबा दी जाती हैं, इतना अंदर जहां ताज़ा हवा का कोई झोंका, प्यार की गर्माहट भी नहीं पहुंचती और ऐसे में इन अधूरी बातों का ज़ख्म भरता नहीं, नासूर बन जाता है और ये तब ठीक होने लगता है जब कोई मेहनत से परत दर परत ख़ामोशी की बर्फ़ को हटाता उस ज़ख्म तक मरहम पहुँचाता है। अभिलेख की लिखी “चार अधूरी बातें” में एक साइकैट्रिस्ट मरहम लगाने को हाज़िर है हालांकि कई बार दवा की ज़रूरत उसे ख़ुद पड़ती दिखाई देती है।

औरत की कमज़ोरी और ख़ुद को मज़बूत दिखाने की जद्दोजहद को बख़ूबी पेश किया गया है “चार अधूरी बातें” में। इस संग्रह की सभी कहानियां औरत और मर्द के संबंधों की परिधि में ही घूमती है लेकिन हर कहानी में नारी बस छली गई अबला सी प्रतीत होती है। क़िरदारों का वर्णन काफ़ी संक्षेप में होने के कारण उनकी पीड़ा की लहरें आपकी ओर आती ज़रूर हैं पर पूरी तरह मन को भिगोये बिना ही लौट जाती हैं। इसी वजह से कई जगह आप दुविधाओं और दर्द को बस पढ़ते हैं, महसूस नहीं कर पाते।

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शब्दों का चयन खूबसूरत है। किसी ब्लॉकबस्टर बॉलीवुड फिल्म की भांति यह संग्रह आपको कई “वन लाइनर्स’ देता है जो काफ़ी प्रभावशाली बन पड़े हैं। भाषा की सरलता और सहजता इसकी एक दूसरी खूबी है। अपने मरीज़ों की उलझनें सुलझाते हुए ख़ुद उनमें खोने को आतुर सा काउंसलर एक अलग समीकरण प्रस्तुत करता है वहीं अलग-अलग उम्र, अलग सामाजिक परिवेश और अलग मनोस्थिति वाली चार महिलाओं की अलहदा कहानियाँ आपको अपने आस-पास की कई महिलाओं की झलक सी लगेंगी।

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“जो छूटता है न, तलब उसी की ज़्यादा होती है।” कुछ ऐसी ही है – “चार अधूरी बातें” छूटकर भी छूटती नहीं हैं, यानि क़िताब पूरी पढ़ लेने पर कोई एक हिस्सा आपमें रह जाता है, कुछ अधूरा सा…..

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यह रिव्यू अदिति जैन ने लिखा है। अदिति रेडियो मिर्च में प्रोग्रामिंग हेड हैं।

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