आज सुबह मैं पार्क में व्यायाम करने के उपरांत कुछ देर सुस्ताने के लिए बैठ गया। वहां कुछ बुजुर्ग पुरुष महिलाओं के विषय में चर्चा कर रहे थे। उनमें से एक महानुभाव ने कहा-“आज तक जितने भी युद्ध हुए हैं वह सभी महिलाओं के कारण हुए हैं !” वहां खड़े सभी लोग प्रतिकार की बजाए मुस्कुराकर इस बात पर समर्थन दे रहे थे। उनके द्वारा कहा गया वक्तव्य मेरे हृदय को विदीर्ण कर गया। असहाय बुजुर्ग जिन्हें हम देश का स्तंभ मानते हैं, सबसे ज्यादा अनुभवी मानते हैं, उनके विचार इतने संकीर्ण कैसे हो सकते हैं? काफी सोच-विचार के बाद जब मैंने अपने गौरवशाली इतिहास पर नजर डाली तो ज्ञात हुआ कि पुरुषों द्वारा महिलाओं पर किए गए अत्याचार के कारण ही युद्ध हुए। फिर बात चाहे सीता जी की हो, द्रौपदी जी की हो या हो आधुनिक नारी की।
भारत आरंभ से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है परंतु ऐसी प्रधानता किस काम की। जो अपनी गलतियों को भी स्वीकार ना कर सके। स्वीकार करने की बात तो दूर उन्हे स्त्रियों के सिर पर मढ़ने में जरा भी लज्जा नहीं आती। इसमें पुरुष ही नहीं महिलाएं भी उतनी ही दोषी हैं। पुरुषों के प्रतिकार की बजाय उनके सम्मुख गाय की भांति खड़ी रहकर कातर नजरों से दया की उम्मीद करती हैं।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ‘अन्याय करना सबसे बडा पाप है परंतु इससे भी बड़ा पाप है इसे सहन करना’।
इतिहास तो बीत गया अब लौट कर वापस आने वाला नहीं है। हम इतना तो कर ही सकते हैं कि इस से सीख ले कर अपने जीवन को नया मोड़ दे दें।
कौटिल्य के कथनानुसार-‘दूसरों की गलतियों से सीख लो खुद पर प्रयोग कर सीखने के लिए तुम्हारी उम्र छोटी पड़ जाएगी।’
आधुनिक युग को देखकर भी यही लगता है कि स्त्रियों के विषय में अभी भी बहुत आमूलचूल परिवर्तन ही हुआ है। जिस तरीके से हम नया प्रभात लाने की कोशिश कर रहे हैं कहीं यह मील का पत्थर साबित ना हो। इसके लिए जन-जन की भागीदारी के साथ-साथ सरकार का सहयोग भी आवश्यक है।
अंततः एक विनम्र निवेदन उन सम्माननीय बुद्धिजीवीयों से भी है कि अपनी कुंठित सोच से समाज को दूषित ना करें। आप समाज के सम्मानीय हैं, कम से कम इस मर्यादा का ख्याल अवश्य रखें।
महिलाओं के सुरक्षित भविष्य की कामना के साथ सादर नमन!