सुप्रीम कोर्ट ने आरे जंगल में पेड़ काटने पर फिलहाल रोक लगा दी है। लेकिन यह कोई खुश होने वाली खबर नहीं है। आरे में करीब 2700 पेड़ काटे जाने थे, जिनमें तीन दिन के भीतर ही लगभग 2 हजार के करीब पेड़ काट दिये गए। अब खुद महाराष्ट्र सरकार ने कोर्ट में कहा है कि हमें अब और पेड़ काटने की जरूरत ही नहीं है। कुल मिलाकर सरकार ने कानून का, पुलिस का फायदा उठाते हुए अपना काम निकाल लिया है।
लेकिन जिस तरह आरे जंगल को काटने का विरोध हो रहा है। बड़ी फिल्मी हस्तियां खुलकर जंगल बचाने के पक्ष में बोल रही है, मीडिया में आर्टिकल लिखे जा रहे हैं और आम लोग सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक पर अपना गुस्सा, विरोध जता रहे हैंः यह सब एक नजर में कमाल लगता है। लगता है लोग अब सच में विकास बनाम विनाश की राजनीति को समझने लगे हैं। युवा जंगल-जमीन के मुद्दे पर पहले से ज्यादा जागरूक नजर आ रहा है। वो जेल जा रहा है, सड़कों पर उतर चुका है।
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प्रदर्शन और विरोध भी है सिलेक्टिव
लेकिन यह सब बहुत सेलेक्टिव भी नजर आता है। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ में सरकार ने अडानी को खदान के लिये एक लाख सत्तर हजार हेक्टेयर क्षेत्र का जंगल दिया है। करीब 800 फुटबॉल मैदान जितना बड़ा जंगल काटा जाना है। कम से कम पांच लाख से ज्यादा पेड़ भी। लेकिन इसके खिलाफ कोई सेलिब्रिटी आवाज उठाता नहीं दिखता। सोशल मीडिया पर किसी तरह का कोई विरोध, आउटरेज नहीं दिखता। न कोई प्राइम टाइम डिबेट। न कोई बहस।
बस स्थानीय आदिवासी समुदाय और वही कुछ ‘एंटी डेवलपमेंट’ ‘एंटी नेशनल’ लोग सालों से जंगल बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। कोर्ट-कचहरी दौड़ रहे हैं। विरोध प्रदर्शन करते रहते हैं। पता नहीं, मीडिल क्लास जो आरे जंगल 2700 पेड़ काटने पर इतना गुस्से में नजर आता है, वो छत्तीसगढ़ में 5 लाख पेड़ काटने, जंगल खत्म होने को नोटिस में भी क्यों नहीं लेता!
आरे: विकास का रास्ता विनाश से होकर गुजरता है
जबकि जलवायु संकट से उबरने में, हवा को साफ रखने में और धरती को बचाने में हसदेव अरण्य के जंगलों की भी उतनी ही भूमिका है, जितना आरे जंगल का। अगर जलवायु परिवर्तन की लड़ाई से निपटना है तो जंगल बचाने की लड़ाई सेलेक्टिव नहीं हो सकती। आरे से लेकर हसदेव तक, इस लड़ाई को साथ ही लड़ना होगा।
यह लेख पत्रकार अविनाश चंचल की फेसबुक प्रोफाइल से उनकी अनुमति के बाद लिया गया है। उनसे फेसबुक पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें।