ख़ुदकुशी. ख़ुद से मौत चुनने की विवशता या क्षणिक आवेग. क्या सोचता होगा इंसान उस वक़्त. वजहें क्या होंगी, ज़िन्दगी ख़त्म कर देने की. एक के बाद एक कई सितारों ने इस बरस ख़ुदकुशी की है. पढ़िए, मशहूर शायर भवेश दिलशाद की नज़्म ख़ुदकुशी.
पढ़े-लिक्खे हुए कहते हैं
देखो
‘ख़ुदकुशी तो
जानवर तक भी नहीं करते…’
कहीं ऐसा न हो
जो जानवर हैं ख़ुदकुशी वो ही नहीं करते?
हुज़ूर!
इन्सान भी जब जानवर था
तब भी
वो करता था क्या ये ख़ुदकुशी आख़िर?
हुज़ूर!
इन्सान होने की भी तो क़ीमत है
ग़म हैं, तजरुबे और फ़ल्सफ़े भी हैं.
हुज़ूर!
अब ग़ौर फ़रमाएं…
चुराकर जोड़ा जाता है
बहुत पानी
कभी झीलों से दर्या से
खुले बहते समन्दर के ख़ज़ानों से
हवस को नाम देकर
ख़्वाहिशों का
एक तांडव चलता रहता है
फ़क़त सब लूट लेने,
पाने की ही कोशिशों का
और
लौटाने की बारी आए तो
अफ़्सुर्दगी सी पलती जाती है
वहां तक, जब
घुटन से दम ही घुटता सा लगे
अहसास होता है वजूदे-फ़ानी का
और फिर…
ज़बरदस्ती सही,
बस कर दिया जाता है ख़ुद को
क़तरा-क़तरा तब.
मिलती मुद्दत में है और पल में हँसी जाती है
हुज़ूर!
इक पहलू और देखें
किसी पत्थर के सीने से
मचलकर फूटने के बाद भी
मुश्किल
सफ़र की कम नहीं
जंगल, पहाड़ों और मैदानों से लड़कर
अपनी इक पहचान पाना
ऐसे रस्ते तोड़ते हैं कुछ ज़ियादा
जोड़ते हैं कम
लहू, आंसू, पसीना, सांस
सब कुछ सौंपकर भी
हाथ क्या आये?
थकानें!
ऊब!
धब्बे! और
ग़मे-हस्ती! ग़मे-दौरां..!
इसी इक मोड़ पर अक्सर
गिरा जाता है ऊंचाई से
अपनी ज़ात और ख़ाका
मिटाया जाता है सब कुछ
हो जिसमें ये सिफ़अत, क़ूवत
कि जो अपना सके,
जो घोल पाये सब कुछ अपने में
ग़मे-दिल और ग़मे जानां
कहे बिन सह सके जो सब
किसी इतनी बड़ी हस्ती के पहलू में
किया जाता है सब कुछ गुम.
कभी तो सामने आ बे-लिबास हो कर भी
हुज़ूर!
इसको ग़मे-तख़्लीक़ कहते हैं
मगर सिक्के के दो पहलू हैं :
यानी ये
निजात अपने से, अपने दर्द से इक बात
और इक बात ऐसी है
सफ़र है ये
सृजन का चक्र है
चुनना
ज़रूरी भी है, हक़ भी है
तो अब तय है तो ये है –
मौत के बिन ज़िन्दगी बेशक़ है बेमानी.
❤️शाद (भवेश दिलशाद)
(भवेश दिलशाद, पेशे से पत्रकार लेकिन ग़ज़ल की दुनिया में ख़ासे चर्चित. हम इनकी ग़जलें आपके लिए लाते रहेंगे.)