ज़ंजीर कोई भी हो, अगर टूटेगी तो आवाज़ होगी. साहित्य और अदब में भी जब कभी कोई ज़ंजीर टूटती है, आवाज़ होती है. आवाज़ धीरे-धीरे शोर बन जाती है. शोर लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचता है. ऐसा ही एक शोर उठा था पचास के दशक में, जब इस्मत चुग़ताई ने ‘लिहाफ़’ लिखी थी. ‘लिहाफ़’, एक ऐसी कहानी, जिसने उस समय, समाज के पुरुषवादी लिहाफ़ के नीचे कसमसाती औरत की छटपटाहट को, पहली बार समाज के सामने रखा था. ख़ूब शोर हुआ. शोर हुआ तो लोगों का ध्यान भी उनकी तरफ़ गया. उस समय इस्मत पर समाज में अश्लीलता फैलाने का मुक़दमा चला. इन आरोपों को कभी साबित नहीं किया जा सका. मगर इस मुक़दमे ने इस्मत को उर्दू के सबसे बदनाम लेखक-लेखिकाओं की फ़ेहरिस्त में शामिल कर दिया. बदनामी भी एक तरह की शोहरत ही है. सो ‘लिहाफ़’ इस्मत चुग़ताई की सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली कहानी बन गई.
इस्मत चुग़ताई की ज़्यादातर कहानियों और उपन्यासों के केंद्र में घरेलू औरतों के दबे हुए ख़्वाब, ख़याल, ख़्वाहिशें और मजबूरियां ही दिखती हैं मगर उन्होंने तमाम अन्य विषयों पर भी लिखा है. इस्मत बचपन से ही ख़ुले दिमाग़ और मिज़ाज वाली बेबाक लड़की थीं. घर-परिवार और आस-पड़ोस में उन्हें जो कुछ देखा वही उनके अफ़साने का हिस्सा बना. अपनी आत्मकथा ‘काग़ज़ी है पैरहन’ में उन्होंने अपने बचपन की ऐसी तमाम घटनाएं बताई हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि उस समय भी चीज़ों को देखने का इस्मत का नज़रिया उनकी उम्र की अन्य लड़कियों से बहुत अलग था. ऐसी ही एक घटना कृष्ण जन्माष्टमी के दिन की थी.
इस्मत के पड़ोस में तमाम हिन्दू परिवार थे, जिनसे उनके परिवार के अच्छे ताल्लुक़ात थे. ऐसा ही एक घर था लाला जी का, जिनकी लड़की सूशी इस्मत की अच्छी दोस्त थी. एक बार लालाजी के यहां जन्माष्टमी की तैयारियां चल रही थीं. तरह-तरह की मिठाइयां और पकवान बन रहे थे. एक कमरे में कृष्ण का मंदिर बनाया गया था और उसे ख़ूब सजाया गया था. घंटियों की आवाज़ सुनकर इस्मत का भी मन किया की जाकर मंदिर के अंदर जाकर देखें.
इस्मत लिखती हैं, “बचपन की आंखें कैसे सुहाने ख़्वाब बन लेती हैं. घी और लोबान की ख़ुशबू से कमरा महक रहा था. बीच कमरे में एक चांदी का पालना लटक रहा था. रेशम और गोटे के तकियों और गद्दों पर एक रुपहली बच्चा लेटा झूल रहा था.” इस्मत को वो बच्चा इतना प्यारा और ख़ूबसूरत लगा कि उन्होंने उसे उठाकर सीने से लगा लिया. बच्चा अचानक चीख़ मारकर रोने लगा. शोर हुआ तो सबका ध्यान उधर गया.
लालाजी ने झपटकर इस्मत के हाथ से बच्चा लिया और इस्मत को उस कमरे के बाहर उठाकर फेंक दिया. घर पर भी शिकायत पहुंचाई गई कि इस्मत चांदी की मूर्ति की चोरी कर रही थी. घर पर उनकी मां ने भी उन्हें ख़ूब पीटा. इस्मत लिखती हैं, “ इससे भी मामूली हादसों पर आए दिन (हिन्दू-मुस्लिम में) ख़ून-ख़राबे होते रहते हैं. मुझे समझाया गया कि बुतपरस्ती गुनाह है. महमूद गज़नवी बुतशिकन था. मेरी ख़ाक समझ में न आया. मेरे दिल में उस वक़्त परस्तिश(पूजा) का अहसास भी नहीं पैदा हुआ था. मैं पूजा नहीं कर रही थी, एक बच्चे को प्यार कर रही थी.”