हिंदी साहित्य के वरिष्ठ साहित्यकार केदारनाथ सिंह नहीं रहे. 1959 में जब जब ‘तीसरा सप्तक’ प्रकाशित हआ तो प्रगतिशील साहित्य के विराट हस्ताक्षर सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय” ने केदारनाथ सिंह को भी स्थान दिया. कारण इनकी भी अनुभूतियां वही थीं जिन्हें उस समय का साहित्य तलाश रहा था. केदार का आधुनिक हिंदी में
यहां से देखो, बाघ और आकाल में सारस जैसे कई काव्य संग्रह लोगों द्वारा सराहे गए हैं. केदार संघर्ष कर रहे कवियों के लिए लिखा है नए कवि का संघर्ष.
केदानाथ को 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला था.
कवि का जीवन परिचय
उत्तर प्रदेश के बलिया जिला. बागियों के बलिया गांव में साहित्य के बागी कवि केदार नाथ सिंह का जन्म चकिया गांव में हुआ. बनारस हिंदू विश्व विद्यालय से उन्होंने 1956 अपना परास्नातक पूरा किया. वहीं से 1964 में उन्होंने पीएचडी पूरी की थी.
वह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी भाषा विभाग के अध्यक्ष पद से रिटायर हुए थे. जब भी हिंदी का कोई बड़ा स्तंभ डगमगाता है तो ऐसा कहा जाता है कि विराट शून्य हो गया है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती. सच भी है. हर साहित्यकार की अपनी अलग विधा है. पढ़िए उनकी विधा की कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं-
1. नए कवि का दुख-
दुख हूँ मैं एक नये हिन्दी कवि का
बाँधो
मुझे बाँधो
पर कहाँ बाँधोगे
किस लय, किस छन्द में?
ये छोटे छोटे घर
ये बौने दरवाजे
ताले ये इतने पुराने
और साँकल इतनी जर्जर
आसमान इतना जरा सा
और हवा इतनी कम कम
नफरतयह इतनी गुमसुम सी
और प्यार यह इतना अकेला
और गोल -मोल
बाँधो
मुझे बाँधो
पर कहाँ बाँधोगे
किस लय , किस छन्द में?
क्या जीवन इसी तरह बीतेगा
शब्दों से शब्दों तक
जीने
और जीने और जीने और जीने के
लगातार द्वन्द में?
2. झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की.
साँस रोक कर खड़े हो गए
लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाँहों में
भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को ‘चुर-मुर’ ध्वनि बाँसों के वन की.
थक कर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में —
और चमकने लगी रुखाई,
प्राण, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की.
3. सारा शहर छान डालने के बाद
सारा शहर छान डालने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुँचा
कि इस इतने बड़े शहर में
मेरी सबसे बड़ी पूँजी है
मेरी चलती हुई साँस
मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूँजी
जिसे रोज मैं थोड़ा-थोड़ा
खर्च कर देता हूँ
क्यों न ऐसा हो
कि एक दिन उठूँ
और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है-
इस शहर के आखिरी छोर पर-
वहाँ जमा कर आऊँ
सोचता हूँ
वहाँ से जो मिलेगा ब्याज
उस पर जी लूँगा ठाट से
कई-कई जीवन