हरित क्रांति के नाम पर यूं कंपनियों के गुलाम बन गए किसान

देश में हर महीने 70 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं और ज्यादातर में आत्महत्या की वजह किसान पर बढ़ता कर्ज होता है। किसान कर्जमाफी की मांग को लेकर 180 किलोमीटर पैदल यात्रा भी करते हैं लेकिन कभी यह सवाल सामने नहीं आता है कि कर्ज की वजहें क्या हैं? और कब से ये सब चला आ रहा है। दाम किसान को पहले भी कोई बहुत ज़्यादा नहीं मिला करते थे लेकिन पहले लागत कम थी, यहां सवाल उठता है कि कैसे और किसने ये लागत बढ़ाई? इन सब बातों को समझने के लिए हमें पुराने दौर में जाना होगा।

1961 का दौर था, जब भारत में अकाल की स्थिति आ गई थी। स्थिति से निपटने के लिए भारत सरकार ने चावल और गेहूँ की नई प्रजातियों की खेती के लिए बीज आयात किए। पंजाब को इस प्रयोग के लिए चुना गया, जिसे उत्तर प्रदेश और फिर हरियाणा तक भी ले जाया गया लेकिन ऐसा पहली बार नहीं था, जब भारत में अकाल पड़ा हो। 17वीं सदी की शुरुआत में भी अकाल ने अपना भीषण रूप दिखाया था। 1860 के बाद 25 बड़े अकाल पड़े, इन अकालों की चपेट में तमिलनाडु, बिहार और बंगाल आए। 1876, 1899, 1943-44, 1957 में भी अकाल ने तबाही मचाई थी लेकिन हर अकाल के बाद हम दोबारा खड़े हुए थे। 1961 के अकाल के बाद एक नई चीज सामने आती है- हाइब्रिड बीज। ये बीज कोई किसान नहीं बल्कि कंपनियाँ बना रहीं थीं।

हाइब्रिड बीज आखिर होता क्या है?
यह खास तौर पर तैयार एक ऐसा बीज होता है, जिससे पैदावार तो ज्यादा होती है लेकिन फसल की गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं होती है। यही कारण है कि हाइब्रिड बीज से तैयार फसल के पके दानों का इस्तेमाल आप बीज में करेंगे तो कुछ खास फायदा नहीं होगा। ऐसी स्थिति में आपको अगले साल नए बीज लेने ही पड़ेंगे। कई बार किसी आपदा के कारण फसल खराब हो जाने पर किसान को खाने का भी कुछ नहीं बचता और बीज तो लेना ही लेना पड़ता है।

यहां एक सवाल है कि Green Revolution में दो ही फसलों गेहूं और चावल को ही क्यों लिया गया? शायद आपको ना पता हो लेकिन भारत में 20 हजार से ज़्यादा प्रजातियां है फिर भी तत्कालीन सरकार ने Green Revolution के नाम पर चावल के बीज को आयात किया। पता नहीं इसमें कितनी समझदारी थी। दूसरा सवाल- जब अकाल पड़ा तो खाली चावल और गेहूँ का ही उत्पादन क्यों बढ़ाया गया जबकि 1961 तक गेहूँ नाम मात्र का ही खाया जाता था, उसके स्थान पर मोटा अनाज यानी कि बाजरा और जौ ज़्यादा खाया जाता था। खैर सरकार ने मांगे और कंपनियों ने गेहूँ और चावल के ही बीज दिए।

कौन हैं हरित क्रांति में खेल करने वाली कंपनियां?
Monsanto इस खेल की सबसे बड़ी खिलाड़ी है। यह कंपनी भारत में 8 दिसंबर 1949 को Monsanto Co. USA private limited Company के रूप में आती है। कुछ सालों बाद यही Private limited Company से public limited company में बदल जाती है। Monsanto के आस-पास ही एक और कम्पनी भारत आई Bayer। 1958 में Bayer Agrochem Private Limited के नाम से आती है और बाद में इसका नाम बदलकर Bayer (India) Limited हो जाता है। इन दोनों के बाद DuPont 1974 में आती है। पहली दो कंपनियाँ Green Revolution और अकाल से पहले भारत आ चुकी थीं और तीसरी थोड़े समय बाद आई। ऐसे में इन कंपनियों के अकाल और हरित क्रांति जैसी चीजें बहारों की तरह थीं, इन्हीं बहारों में इन कंपनियों ने खेती को ऐसा जकड़ की आज भी खेती इन्हीं के चंगुल में दम तोड़ रही है।

क्या खेल करती है ये कंपनियाँ?
ये कंपनियाँ पहले बीज देती है और उसके बाद उत्पादन बढ़ाने और अच्छी खेती के लिए पेस्टिसाइड देती हैं। इन सब का एक पैकेज तैयार होता है, एक बार आप खेत में पेस्टिसाइड डाल दिए तो अगली बार से इसका इस्तेमाल करना आपकी मजबूरी हो जाती है और बाजार मजबूरी का फायदा उठाना अच्छे से जानते ही हैं।

अब किसानों के बुरे दिन शुरू हो चुके थे
किसान जो बीज हर बार अपनी फसल से बचा लेता था और वह अगली बार बीज के खर्चे से बच जाता था और फसलों में पेस्टिसाइड का इस्तेमाल भी बहुत कम होता था, अब वह सब धीरे-धीरे सब बदल गया, बीज हाइब्रिड हो गए। उन बीजों को एक ही बार इस्तेमाल किया जा सकता था और इन बीजों से अच्छी पैदावार लेने के लिए पेस्टिसाइड भी खूब आने लगे। इन बीजों से जुड़ी सबसे अजीब बात यह थी कि अगर आप ने इन बीजों के साथ एक खेती कर ली तो आपको दोबारा से कंपनी से बीज लेना होग क्योंकि वह जमीन ऐसी हो चुकी होगी कि उस बीज के बिना खेती करना मुश्किल हो जाएगा। खाली बीज ही नहीं अगली बार पेस्टिसाइड इस्तेमाल करना भी आपकी मजबूरी हो जाएगी। ऐसे में किसान मजबूर हो जाता है, दोबारा बीज और पेस्टिसाइड लेने के लिए, इस प्रकार बीज और पेस्टिसाइड के दाम बढ़ जाते हैं और किसान की लागत बढ़ती जाती है, अंत में वह कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर लेता है। पेस्टिसाइड इस्तेमाल करने से कई बार फसल भी खराब हो जाती है फिर किसान पर कर्जे की मार इतनी हो जाती है कि वह हारने और टूटने लगता है।

कर्जमाफी से कुछ होगा?
यह सवाल सबसे बड़ा है कि किसान को कैसे बचाया जाए? कई लोग न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) देने की मांग करते हैं और कई कर्ज मुक्त करने की लेकिन ये दोनों ही रास्ते किसान को नुकसान से नहीं रोक सकते क्योंकि किसानी अभी भी कंपनियों की गुलाम है। अगर किसान को बचाना है तो इस गुलामी को खत्म करना होगा। ‘बीज संप्रभुता’ को लाना होगा लेकिन इसकी बात आपको बहुत कम सुनाई देगी क्योंकि जो बीज कंपनियाँ हैं भारत में, ये कंपनियाँ कोई लावारिस नहीं बल्कि आपके ही PPP (Public Private Partnership) Model के तहत आपके विकास के नाम पर मलाई काट रही हैं और तथाकथित विकास भी इनका पूरा साथ दे रहा है।

क्या होती है बीज संप्रभुता?
वंदना शिवा के अनुसार: बीज संप्रभुता से आशय किसानों के अधिकारों की सुरक्षा और विभिन्न प्रकार के बीज स्रोतों तक पहुंच बनाने के लिए बीज एवं उसकी प्रजातियों के आदान-प्रदान से है। इससे उभरती हुई बड़ी बीज कंपनियों द्वारा पेटेंट कराने, स्वामित्व हासिल करने, नियंत्रित करने और आनुवांशिक रूप से परिष्कृत किए जाने से बचाया जा सकता है। यह बीज एवं जैव विविधता को सार्वजनिक वस्तु के रूप में उपयोग में लाने पर आधारित है।

सरकार चाहे कितना भी कर्ज माफ कर दे लेकिन किसान की परेशानी बस कुछ दिनों तक के लिए ही ठीक हो सकती है क्योंकि किसान को बीज लेने के लिए फिर उन्हीं कंपनियों के पास जाना होगा और वह कंपनियां खाली बीज नहीं बनातीं, वह कैमिकल (जैसे पेस्टिसाइड) भी बनाती हैं। किसान को उनका पूरा पैकेज लेना होगा और जो कर्ज उतरा था, वह फिर उतना ही चढ़ जाएगा क्योंकि हम बीज के लिए उनके गुलाम है और कंपनियां भी इसे अच्छे से जानती हैं। हर बार बात कर्जमाफी पर ला कर खत्म कर दी जाती है और कर्ज की वजह को कभी मौसम की मार का नाम दिया जाता है तो कभी खराब फसल को इसका जिम्मेदार बताया जाता है जबकि बात इतनी बड़ी है ही नहीं। कंपनियों का राज खत्म होने के बाद लागत अपने आप ही गिर जाएगी और अगर मौसम भी खराब होता है तो किसान के पास अपने बीज होंगे और उसी बीज का अगली बार इस्तेमाल करके लागत को कम कर सकता है। कर्ज माफ करने या MSP बढ़ाने से कुछ दिन का ही अराम मिल सकता है, अगर इस संकट को खत्म करना है तो जरूरी है कि किसानों को इन कंपनियों की गुलामी से बचाया जाए।

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