ग़ज़ल की ख़ूबसूरती है कि यहां बातें छिपाकर कही जाती हैं. जो जाहिर है ऐसा माना जाता है वह ग़ज़ल नहीं. भवेश दिलशाद इससे इनकार करते हैं. भवेश कहते हैं कि ग़ज़ल समझ न आए तो क्या ख़ाक ग़ज़ल? पढ़िए, शायर भवेश दिलशाद की ग़ज़ल, ”जो फ़ासला है ये ठीक है.”
न करीब आ न तू दूर जा ये जो फ़ासला है ये ठीक है,
न गुज़र हदों से न हद बता यही दायरा है ये ठीक है.
न तो आशना न ही अजनबी न कोई बदन है न रूह ही,
यही ज़िंदगी का है फ़लसफ़ा ये जो फ़लसफ़ा है ये ठीक है.
ये ज़रूरतों का ही रिश्ता है ये ज़रूरी रिश्ता तो है नहीं,
ये ज़रूरतें ही ज़रूरी हैं ये जो वास्ता है ये ठीक है.
मेरी मुश्किलों से तुझे है क्या तेरी उलझनों से मुझे है क्या,
ये तक़ल्लुफ़ात से मिलने का जो भी सिलसिला है ये ठीक है.
हम अलग-अलग हुए हैं मगर अभी कंपकंपाती है ये नज़र,
अभी अपने बीच है काफ़ी कुछ जो भी रह गया है ये ठीक है.
मेरी फ़ितरतों में ही कुफ़्र है मेरी आदतों में ही उज्र है,
बिना सोचे मैं कहूँ किस तरह जो लिखा हुआ है ये ठीक है.
(शायर भवेश दिलशाद पेशे से पत्रकार हैं. शायरी और पत्रकारिता दोनों साथ चल रही है। जितना अच्छा लिखते हैं उतना ही अच्छा सुनाते हैं.)