किसान मार्च: जीते हमेशा गांधी हैं, गोडसे कभी नहीं जीत सकता

11 मार्च 2018 को प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी संसद में बोलते हैं कि भारतीय राजनीति में सड़क के संघर्ष और धरना प्रदर्शनों की बहुत जगह नहीं रही गई है। अगले ही दिन उन्हें दिखाते हैं कि तरीका अगर गांधी वाला होगा तो सत्ता को संघर्ष के आगे झुकना ही पड़ेगा।

महाराष्ट्र के 30,000 किसानों ने नासिक से मुंबई कूच करने से पहले एक बार उस बूढ़े फकीर को जरूर याद किया होगा, जिसे एक आतताई ने बिड़ला हाउस की सीढ़ियां उतरते वक्त गोलियां मार दी थीं। यूं ही नहीं मोहनदास करमचंद गांधी को ‘महात्मा’ कहा गया होगा। अहिंसा किसी को मूर्खता लग सकती है लेकिन जो लड़ाई अहिंसा से जीती जा सकती है, उसका लेश मात्र भी हिंसा से नहीं पाया जा सकता।

विकास के नाम पर किसानों और आदिवासियों की जमीनें छिन जाने से, मौसम की मार से और कर्ज से परेशान किसानों का एक बड़ा हुजूम उस सरकार से अपना हक मांगने चल पड़ा, जो सरकार पांच साल में एक ही बार किसान की सुध लेना जरूरी समझती थी। 180 किलोमीटर की यात्रा को पार करने में इन ‘अनपढ़’ और ‘गवार’ किसानों ने जिस विलक्षण शांति और अहिंसा का परिचय दिया, उसे हरियाणा के जाट और गुजरात के पटेल कभी नहीं दिखा पाए।

दिखा गांधी वाला तरीका

30,000 से ज्यादा लोग 180 किलोमीटर चलते गए, ना कहीं शोर हुआ, ना बसें जलीं, ना दुकानें लूटी गईं और ना ही बच्चों की परीक्षा छूटी। बैनर कई दिखे लेकिन सलीका और तरीका एक, और वह तरीका था ‘गांधी वाला।’ वही गांधी जिनके नाम पर जुमले उछाले जाते हैं कि ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।’ वही गांधी जिनको विभाजनकारी बताने वाले संगठनों के मसीहा भी देश-विदेशों में ‘बापू-बापू’ कहते फिरते हैं।

कुछ यूं रहा था जाटों का प्रदर्शन

पिछले कुछ सालों में कुछ और भी आंदोलन और विरोध प्रदर्शन हुए हैं। उनका शोर काफी ऊंचा रहा लेकिन सफलता उनको नहीं मिली। वह चाहे गुजरात के पटेल रहे हों या फिर कई राज्यों के जाट। सरकार से अपना हक मांगने वाले इन किसानों को कहीं रेल की पटरियां उखाड़ने की जरूरत नहीं पड़ी। कहीं इन्हें ऐसा भी नहीं लगा कि रेल रोक दें तो काम बन जाए। ये बस चलते रहे, पैरों से खून और माथे से पसीना रिसता रहा लेकिन ये चलते रहे क्योंकि कहीं ना कहीं इनके मन में गांधी थे। इनके कानों में गांधी का अहिंसा सूत्र गूंजता रहा। इसी का असर रहा कि कभी ना रुकने वाली मुंबई के लोगों को इन किसानों से कोई आपत्ति नहीं हुई। मुंबई ने दोनों हाथों से इनका स्वागत किया।

जहां जरूरत हुई खिलाया, जहां जो बन पड़ा किया। जाटों-पटेलों के आंदोलनों की तरह इनके आंदोलन से किसी को डर नहीं लगा। जंगलों से आए आदिवासी और धूप में धरती का सीना चीर भारत का पेट भरने वाले किसान चुपके से आए और एसी कमरों में बैठे हुक्मरानों को आईना दिखा गए। उनसे अपना हक छीन ले गए और बता गए कि जनता आएगी तो हक देना पड़ेगा। ये किसान उन्हें भी आईना दिखा गए, जिन्हें लगता है कि गोडसे भी कभी जीत सकता है।

फिलहाल फौरी तौर पर किसानों की मांगे मानते हुए उन्हें आश्वासन दिया गया है। किसान उसी शांति के साथ अपने-अपने खेतों पर लौट रहे हैं लेकिन सरकार को यह याद रखना होगा कि किसान बड़ा जिद्दी होता है, मांगे और आश्वासन भुला देंगे तो ये फिर आएंगे और आपको फिर झुकना पड़ेगा क्योंकि इनके मन में गोडसे नहीं महात्मा गांधी हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *