एक नारा याद करिये जो अकसर आपने आंदोलनों में सुना होगा वो नारा है ‘आवाज़ दो…कि हम एक है’। इस नारे से सभी को मुद्दे से जोड़ा जाता है और लोगों के अंदर एकता का भाव भरा जाता है। आज कल राजनीतिक दल यही नारा फॉलो कर रहे है। आज सभी पार्टी बस एक ही मुद्दे पर एक हैं, जो है सत्ता का। सत्ता में कैसे आया जाए, इसी बात पर सभी दलों का फोकस है और वो सत्ता में आने के लिए हर चीज की बलि चढ़ने को तैयार बैठे है। चाहे वो उनकी विचारधारा ही क्यों ना हो। वह राम के नाम का भी खाते हैं और हराम के नाम का भी। 21वीं सदी में अब विचारधाराहीन राजनीति अपने शबाब पर पहुंच गयी है। पिछले दिनों हुए राज्यों के चुनावों बहुत सारे सवाल खड़े कर दिये हैं।
विचारधारा क्यों जरूरी है ?
विचारधाराओं का अंतर लोकतंत्र को मजबूत बनाता है। एक पार्टी दूसरी पार्टी से अलग इसलिए होती है कि वो अलग विचार रखती है। हर पार्टी अपनी विचारधारा के साथ एक अपने नजरिये से समाज को देखती है और उसे वैसा बनाना चाहती है। कुछ पार्टीयां हिंदूवादी विचारधारा का समर्थन करती हैं तो कुछ की पहचान दलितवादी राजनीति की है। एक पार्टी कश्मीर को 370 का समर्थन करती है तो दूसरी विरोध। यही इन पार्टियों की खासियत है जिस से वो अलग है लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है। 370 के पक्ष और विपक्ष दोनों वालों ने मिलकर सरकार बना ली जबकि एकदूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे। अब इन दोनों दलों में अंतर बस पार्टी सिंबल का ही रह गया है। अब साइकिल पर नीला रंग चढ़ने लगा है लेकिन ये सब किसी बदलाव के लिए नहीं हो रहा और न ही कोई नई विचारधारा निकलने वाली है। दोनों का मेल बस सत्ता पाने के लिए हुआ है। दिल्ली में झाड़ू हाथ को साफ करने आई थी पर बिना उसके समर्थन के दिल्ली में पहली बार झाड़ू चल भी नहीं पाई थी । पार्टी नई थी पर उसका नारा भी वही था आवाज़ दो हमको कि हम एक है। राजनीतिक दल और जनतंत्र के द्वंद्वात्मक संबंध से एक स्वस्थ राजनीति का ढांचा बनता है। पर जनता का दिल जीतने या बेहतरी की विचारधारा बनानेवाले दल को गढ़ने की विधा बहुत हद तक धुंधली हो गयी है।
आपको क्यों फर्क पड़े ?
जब आप वोट डालते है तो आपके जहन में एक बात जरूर होती है कि इसको वोट कर के जितना है, आप मेघालय में भी यही सोच कर वोट डाले होंगे तभी एक पार्टी को 2 सीट ही और दूसरी दो पार्टीयो को ज्यादा सीट अब आप सोचिए जिसको अपने अपना मनाने से इनकार कर दिया वही सरकार बना दे तो आपका वोट किसके खिलाफ गया। आपका वोट आपके ही खिलाफ आ पड़ा इसमें आप कुछ नहीं कर पाए क्योंकि आपके पास बस वोट देने का अधिकार है, सरकार बनाने का नहीं। इस बात पर एक बुद्धिजीवी का कथन याद आता है “If voting changed anything, they’d make it illegal।” ये बात वक़्त के साथ सही होती जा रही है, अगर आपके वोट देने से कुछ होता तो 2 सीट वाली सरकार कभी सत्ता में नहीं आती।
क्या होगा नतीजा ?
वह लोकतंत्र कभी मज़बूत नहीं कहला सकता जिसमें विरोधी देशद्रोही तक गिने जाने लगें और बहुमत पक्ष जो मर्ज़ी कर के भी 31% वोट या केवल 2 सीटों के साथ सरकार भी बनाये और देशभक्त भी कहलाये। इसी में एक तर्क और जोड़ा जाए की अभी हमारे चुनावी कायदे कानूनों को दलों ने अपने लिए पूरी तरह मोड़ लिया है। ऐसा ही रहा तो आने वाले समय में बस राजनीतिक दलों के निशान ही अलग होंगे बाकी ना कोई भगवा बचेगा और न कोई नीला। राजनीतिक दलों की बस एक ही विचारधारा बचेगी वो होगी सत्ता में काबिज होना। आप चाहे वोट हिन्दू के नाम पर डालिये या मुसलमान के आप हरदम बाटे रहेंगे और वो मिल कर सरकार बना देंगे और एक वक्त के बाद सभी की विचारधाराओं का अंत हो जाएगा और अंत में किसी और को नहीं बस आपको ही ठगा जाएगा।
बोलो भारत की जय।